मुस्लिमों की एकजुटता व ब्राह्मणों के बिखराव से नये राजनैतिक समीकरणों की दस्तक

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फर्रुखाबाद: नगर पालिका चुनाव में इस बार कई अभूपतूर्व परविर्तन देखनें को मिले। एक तो शहर की राजनीति में विगत लगभग दो दशकों से अधिक चला आ रहा का नाला बनाम सेनापत का समीकरण इस बार नगरपालिका चुनाव में पूरी तरह से ध्वस्त हो गया। एकमुश्त मतदान के लिये अपनी विशिष्ट पहचान वाला ब्राह्मण मतदाता, पहलीबार अंतिम समय तक दिग्भ्रमित रहा, व मुस्लिम मतदाता का पहली बार विजय सिंह से मोह भंग होता नजर आया। बृह्मदत्त द्विवेदी हत्याकांड के आरोपी विजय सिंह को पहली बार ब्राह्मण मत मिलते दिखे। पिता की हत्या के बाद से उनकी राजनैतिक विरासत संभाल रहे मेजर सुनील दत्त द्विवेदी ब्राह्मण मतदाता को दिशा दे पाने में असफल नजर आये। यद्यपि अभी मतगणना होना बाकी है, और यह आंकलन मतदान केंद्रों पर उमड़े मतदाताओं के हावभाव व सर्वे पर आधारित हैं, परंतु जानकारों की मानें तो स्थिति यही है।

विगत बीस वर्षों में मुस्लिमों ने विजय सिंह का हर अच्छे बुरे वक्त में साथ दिया। वर्ष 1995 में हुए नगरपालिका अध्यक्ष के चुनाव में मुस्लिमों ने दमयंती सिंह को एकमुश्त वोट देकर चेयरमैन की कुर्सी तक पहुंचाया। उनके कार्यकाल में मुस्लिम मोहल्लों में खूब काम भी हुए। विजय सिंह बहुत जल्दी मुसलमानों के लोकप्रिय नेता हो गए। मुसलमानों का विजय सिंह से लगाव बढता गया। दरगाह झंडा शरीफ की की पंचायत विजय सिंह की ही अध्यक्षता में हुई थी। यह वह समय था जब मुसलमानों के कद्दावर नेता अनवार खान भी जिन्दा थे। इसी दौरान भाजपा नेता बृह्मदत्त द्विवेदी की हत्या हुई। उपचुनाव में प्रभा द्विवेदी चुनाव जीतीं। वर्ष 2000 में नगरपालिका अध्यक्ष का पुनः चुनाव हुआ और दमयंती सिंह फिर जीतीं। इस बार भी उन्हें मुसलमानों का अच्छा समर्थन मिला। जमानत मिलने के बाद विजय सिंह 2000 का विधान सभा चुनाव लड़े और मुसलमानों ने फिर उनका बेड़ा पार लगाया। 2003 में विजय सिंह को सजा हुई और बाद में स्टे मिल गया। विजय सिंह ने 2007 का चुनाव सपा से लड़ा और फिर मुसलमानों ने साथ नहीं छोड़ा। 2007 के नगर पालिका अध्यक्ष चुनाव में कांग्रेस ने कमर हुसैन को मैदान में उतारा था पर मुसलमानों ने दमयंती सिंह के मुकाबले उन्हें स्वीकार नहीं किया। कायमगंज से लेकर कमालगंज तक विजय सिंह मुस्लिमों के सबसे बड़े सर्वमान्य नेता थे।

मुसलमानों को विजय सिंह से पहलीबार नाराजगी तब हुई जब उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनाव में सलमान खुर्शीद की पत्नी लुईस खुर्शी के विरुद्ध मुन्नू बाबू को चुनाव जिताने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया, और वह मात्र 2745 मतो से चुनाव हार गयीं। शहर के मुस्लिमों के गुस्से का आलम यह था उन्होंने चुनाव परिणाम आने के बाद ही विजय सिंह के आवास के सामने जबरदस्त रोष प्रदर्शन किया था। यद्यपि विजय सिंह ने इसे पार्टी प्रतिबद्धता के चलते अपनी मजबूरी बताते हुए सफाई देने का भी प्रयास किया, परंतु शायद दिलों में कही दरार आ चुकी थी। मुस्लिमों ने विजय सिंह को पहला झटका 2012 के विधान सभा चुनावों में दिया जब मुस्लिम वोट विजय सिंह से खिसक गया। 2012 के नगर पालिका अध्यक्ष के चुनाव में मुस्लमान अभूतपूर्व ढंग से एक तो हुआ पर विजय सिंह के लिए नहीं सलमा बेगम के लिए।

इस बार के नगरपालिका अध्यक्ष के चुनाव में मुसलमानों की अभूतपूर्व एकता दिखी। किसी चुनाव में शायद ऐसा पहला मौका था जब मुसलमानों ने अपना वोट बंटने नहीं दिया। इस नतीजे तक पहुँचने में पिछले विधान सभा चुनाव में उमर खान की हार ने बहुत सबक सिखाया। जाहिर है कि मुस्लिम एकता का लाभ सलमा बेगम को मिला। दूसरी ओर इस चुनाव में पहली बार ब्राह्मण मतदातों में बिखराव दिखा। यहाँ तक कि सलमा बेगम को भी ब्राह्मण मतदाताओं द्वारा वोट दिए जाने की जानकारी मिली है। इस चुनाव में हालाँकि शशि प्रभा मिश्रा एकमात्र ब्राह्मण उम्मीदवार थीं। लेकिन ब्राह्मणों ने शशि प्रभा मिश्रा से जुड़ने में राजनीतिक हित नहीं समझा।हालाँकि भाजपा ने शुरू से ही ब्राह्मण वोटों पर नज़र रखने का प्रयास किया। अरुण प्रकाश तिवारी और रमेश त्रिपाठी को चुनाव का संयोजक बनाया। मेजर सुनील दत्त द्विवेदी और प्रांशु दत्त द्विवेदी को भी तरजीह दी। लेकिन भाजपा की ब्राह्मणों से बात नहीं बनी। सलमा बेगम से ब्राह्मणों के जुडाव की बात चली और फिर नतीजे तक भी पहुंची। पहली बार ब्राह्मणों ने गैर हिन्दू उम्मीदवार को वोट देने का मन बनाया। वत्सला अग्रवाल को भी ब्राह्मणों के वोट मिलने की खबर है। ब्राहमण नेता खुद मानते हैं कि उनके समाज के लोग किसी एक पार्टी से नहीं जुड़ पाए। विजय सिंह तो ब्रह्मण विरोध की राजनीती करके ही आगे बड़े। लेकिन इस बार ब्राह्मणों ने विजय सिंह को भी वोट दिये। ।