कोरोना जाते-जाते बुरी यादों के साथ दे जायेगाअच्‍छी आदतें, मनोवैज्ञानिकों ने जताई उम्मीद

FEATURED राष्ट्रीय सामाजिक

लखनऊ: हमारी खास आदत है यदि हम एक काम को लगातार कुछ समय तक करते रहते हैं तो वह हमारी आदत में शुमार हो जाता है। जैसे कुछ लोगों की आदत सुबह उठकर चाय पीने की होती है । एेसे में वह उसके बिना नहीं रह सकते। इसी तरह से सुबह टहलने जाने वाले अपनी आदत को नहीं छोड़ते भले ही कितना भी जाड़ा हो या गर्मी। दरअसल कोई भी काम चाहे वह अच्छा हो या बुरा यदि हम उसे लंबे समय तक निरंतर करते रहते हैं तो उसके आदी हो जाते हैं और यह हमारे बिहेवियर में आ जाता है। कोरोना के डर के बहाने ही सही बार-बार हाथ धोने, मास्क पहनने , दूसरों से हाथ न मिलाने ,साफ- सफाई रखने जैसी कई चीजों के हम मजबूर हैं। अच्छी बात यह है कि डर के कारण ही सही लेकिन स्वास्थ्य के लिए इन अच्छी आदतों को हमें यूं ही भविष्य में भी जारी रखना होगा। यह कहना है किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू )के मनोरोग विभाग के हेड डॉ. पीके दलाल व नेशनल पीजी कॉलेज की साइकोलॉजिस्ट डॉ. नेहाश्री श्रीवास्तव का।
डॉ.दलाल कहते हैं यह सही है कि जीवन को संकट में पड़ते देख हमने फिलहाल हाथ धोने ,मास्क पहनने ,दूर से बात करने जैसी कई अच्छी आदतों को अपना लिया है। लेकिन अच्छा तो तब होगा जब संकट समाप्त होने के बाद भी हम इन्हें अपने व्यवहार में अमल में लाते रहें। उन्होंने कहा कि इस बात की चर्चा हो रही है कि जापान में को रोना का वह प्रभाव नहीं दिख रहा है जो अन्य देशों में है। कारण यह माना जा रहा है कि जापान ने वर्ष 1918 में एशियन फ्लू के समय से मास्क पहनना शुरू किया था जिसे उन्होंने अपनी हैबिट में शामिल कर लिया। जापानी आज भी मास्क का प्रयोग करते हैं । यही वजह है कि जापान को कोरोना वायरस उस तरह से नुकसान नहीं पहुंचा पाया जिस तरीके से उसने अन्य देशों में तांडव मचाया है ।
डॉक्टर दलाल कहते हैं एक अच्छी प्रैक्टिस जो जापान ने 100 साल पहले शुरू की थी उसने उसको अपनाया और आज तक उसका अपने जीवन में पालन करते चले आ रहे हैं। हमें भी कुछ ऐसा ही करने की जरूरत है। कोरोना के डर के बहाने ही सही इधर-उधर थूकने की गंदी आदत जिसे स्वच्छ भारत अभियान के तहत कई कोशिशें के बावजूद भी नहीं सुधार पाए।वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन हर साल हैंड हाइजीन डे मना कर भी लोगों को जागरूक करने में विफल रहा शायद कोरोना हमारी आदतें बदल सके। वह कहते हैं कि यहां तक देखा गया है कि यदि आप थूकने पर किसी को टोक दें तो लोग लड़ने पर आमादा हो जाते हैं । अब हमें इन आदतों के लिए लोगों को टोकना भी पड़ेगा क्योंकि इससे हम सब का स्वास्थ्य भी जुड़ा है ।
नेशनल पीजी कॉलेज की साइकोलॉजिस्ट डॉ. नेहा श्री श्रीवास्तव कहती हैं कि यह समय हमारे बिहेवियरल मॉडिफिकेशन का भी है । वह कहती हैं कि हमारा दृष्टिकोण बदल रहा है और कंडीशनिंग हो रही है । अच्छी आदतें हम भले ही कोरोना के डर के चलते डाल रहे हैं लेकिन पूरे मनोबल से कोशिश कर रहे हैं । जरूरत इस बात की है कि हमारे अंदर जो यह पॉजिटिव चेंज आ रहा है इसको हम आगे भी अमल में लाते रहें । डॉक्टर श्रीवास्तव कहती हैं कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत भी निजी स्वच्छता का संदेश देने की बहुत कोशिशें की गई लेकिन लोगों ने इस तरीके का जज्बा नहीं दिखाया ।
यह मौका है कि कोरोना शायद हमें जिंदगी के लिए एक महत्वपूर्ण सबक भी दे जाए। वह कहती हैं यह हमारा सिचुएशनल बिहेवियर माॅडिफिकेशन है। उदाहरण के तौर पर बताती हैं कि कुछ लोगों की सुबह टहलने जाने की आदत होती है। वहीं कुछ लोग सुबह बेड टी के आदी होते हैं । इन लोगों को अगर कामों के लिए मना कर दिया जाए तो बहुत बेचैन और परेशान हो जाएंगे क्योंकि यह उनकी आदत में शुमार हो चुका है । बीते एक माह से हम जो हाथ धोने व मास्क पहनने की प्रैक्टिस कर रहे हैं उसको अगर आगे भविष्य में भी जारी रखेंगे तो यह हमारे स्वास्थ्य व देश के हित में होगा। यानी कोरोना के बहाने ही सही जो काम स्वच्छ भारत अभियान के तहत नहीं हो पा रहा था वह कम से कम अब सफल होता दिखाई दे रहा है।