नई दिल्ली: बिहार विधानसभा का चुनाव खत्म हो चुका है और अब एग्जिट पोल पर बहस जारी है। एक महीने तक चले इस चुनावी समर में पांच चरणों के चुनावों के बाद भी इस चुनाव की दिशा और दशा क्या होगी, उसे एक्जिट पोल ने और उलझा दिया है। पार्टी नेताओं के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषक भी अब तक अंदाजा लगा पाने में विफल रहे हैं कि बिहार की सत्ता पर राज किसका होगा।
अगर एग्जिट पोल की बात करें तो जहां आज तक और एनडीटीवी ने एनडीए गठबंधन को बढ़त दिखाया है तो एबीपी, इंडिया टीवी और न्यूज एक्स ने महागठबंधन को सत्ता का दावेदार बताया है। इन सबसे अलग है चाणक्य का एग्जिट पोल जिसमें एनडीए गठबंधन को भारी बहुमत दिखाया है। कुल मिलाकर एग्जिट पोल में भी कांटे की टक्कर है और सभी पार्टियां अपनी जीत का दावा कर रही हैं। कुछ एग्जिट पोल के नतीजों को सच मानते हुए अगर मान लिया जाए कि बिहार के इस चुनाव में महागठबंधन की हार होती है तो ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि नीतीश और लालू के राजनीतिक भविष्य का क्या होगा और नीतीश-लालू को किस तरह के सवालों का सामना करना पड़ सकता है?एक के बाद एक आ रहे एग्जिट पोल के बाद भी अब तक बिहार के सत्ता तक का सफर मंगलराज के साथ तय होगा या मंडलराज के साथ यह साफ नहीं हो पाया है।
उत्तराधिकार के मुद्दे पर घिरेंगे लालू
बिहार चुनाव में 240 से अधिक रैली करने के बाद और पूरे राज्य में तूफानी दौरे के बाद भी अगर लालू यह चुनाव हार जाते हैं तो लालू के राजनीतिक करियर पर कई सवाल उठेंगे। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद बिहार चुनाव लालू यादव के लिए वापसी का आखिरी विकल्प है। यह चुनाव न सिर्फ लालू के राजनीतिक करियर का फैसला करेगी बल्कि इस चुनाव से लालू की राजनीतिक विरासत का भी फैसला होना है।
चारा घोटाले में फंसे लालू कानूनी तौर पर चुनाव लड़ने के अयोग्य हैं और इस चुनाव से लालू के दोनों लाल की राजनीतिक पारी का भी फैसला होगा। लालू की बेटी मीसा भारती पहले ही लोकसभा चुनाव हार चुकी है और ऐसे में लालू के लिए उम्मीद की किरण सिर्फ और सिर्फ बिहार विधानसभा का यह चुनाव है। यही नहीं लालू की यह हार जातीय समीकरण पर उनकी पकड़ को भी कमजोर करेगी। लालू यादव को जातीय समीकरण बिठाने में माहिर माना जाता है। लालू जातिगत राजनीति के चैंपियन माने जाते हैं। इन सब कारणों को ध्यान में रखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि अपने अलग अंदाज के लिए मशहूर लालू यादव के लिए अपनी राजनीतिक विरासत बचाने का यह आखिरी मौका है। अगर वह हारे तो उनकी बची खुची साख तो जाएगी ही, उनके विरासत किसे मिले इस पर भी बहस तेज होगी। हार की स्थिति में उत्तराधिकार के सवाल पर परिवार में भी फूट पड़ सकती है। पप्पू यादव जैसे कुछ नेता पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं।
नीतीश को पार्टी से ही मिल सकती है चुनौती
नीतीश ने बीजेपी को रोकने के सभी संभव चुनावी रणनीतियों पर काम किया लेकिन अगर यह रणनीतियां विफल रही तो ना सिर्फ नीतीश के राजनीतिक कुशलता पर सवाल उठेंगे बल्कि नीतीश को अपने राजनीतिक करियर पर भी पुनर्विचार करना होगा। सवाल नीतीश के सत्ता लोलुपता पर भी उठेंगे और सवाल लालू के साथ गठबंधन पर भी उठेंगे। यही नहीं यहां से नीतीश के नेतृत्व क्षमता और कार्यकुशलता पर भी सवाल उठेंगे। जिस जंगलराज के खिलाफ नीतीश हमेशा आवाज उठाते रहे उसी के साथ मैदान में उतरने की रणनीति पर कई तरह के प्रश्न खड़े होंगे।
महागठबंधन की इस हार के साथ राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की योजना भी खटाई में पड़ सकती है। यही नहीं नीतीश की इस हार से कहीं न कहीं अरविंद केजरीवाल को इसका फायदा मिल सकता है। केजरीवाल लगातार केंद्र से लोहा लेकर मुख्य विपक्ष की भूमिका तलाश रहे हैं। कांग्रेस की राजनीतिक उदासीनता और बिहार में महागठबंधन की हार केजरीवाल के लिए ऑक्सीजन का काम करेगी। अगर महागठबंधन हारा तो आगामी विधानसभा चुनावों (पश्चिम बंगाल, यूपी, असम) में भी नीतीश की भूमिका कमजोर होगी। नीतीश की इस हार से जेडीयू में उनकी भूमिका पर भी सवाल उठेंगे। जेडीयू में शरद यादव का खेमा हमेशा से ही दरकिनार किया जाता रहा है और इस हार से जेडीयू में फूट भी देखने को मिले तो कोई अचरज की बात नहीं। इस हार से न सिर्फ शरद यादव खेमा बल्कि जेडीयू से बाहर किए गए जीतन मांझी और सबीर अली जैसे नेताओं को भी नीतीश के ऊपर हमला बोलने का मौका मिलेगा।