राजेन्द्र बाबू के लिए देशहित था सर्वोपरि

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देश के संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बाबू राजेन्द्र प्रसाद के लिए देश हित से ऊपर कुछ भी नहीं था और लोकतंत्र की भावना में विश्वास करने वाले इस महान नेता ने देश की वित्तीय व्यवस्था, कानून और अन्य कर्इ मामलों पर भी गहन विचार-विमर्श किया था।

जुलार्इ 1946 में जब संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा का गठन हुआ तो राजेन्द्र बाबू उसके अध्यक्ष चुने गए। भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाने और उसे सबसे बड़ा लिखित संविधान देने में राजेन्द्र बाबू का योगदान अतुलनीय है। विश्व के सबसे बेहतरीन संविधानों की सबसे अच्छी बातों को अपने देश की आवश्यकताओं के मुताबिक ढाल कर उन्हें अपने देश के संविधान में शामिल कर राजेन्द्र बाबू और उनके साथ के लोगों ने हमारे लिए सुनहरे भविष्य के रास्ते खोल दिए।

संविधान निर्माण में राजेन्द्र बाबू की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। वे न सिर्फ संविधान सभा के अध्यक्ष थे बल्कि इसके लिए बनायी गयी तथा वित्त, नियम और विधि एवं राष्ट्रीय ध्वज सहित अन्य समितियों के अध्यक्ष थे। राष्ट्रीय ध्वज, देश की वित्तीय व्यवस्था, कानून आदि राजेन्द्र बाबू की ही देन हैं।

देश में जब कांग्रेस एकमात्र राजनीतिक पार्टी थी तब राजेन्द्र बाबू ने सभी लोगों के साथ मिलकर हमेशा देश हित के लिए काम किया। जब भी संविधान सभा में किसी बात को लेकर बहस हुर्इ या फिर मतभेद हुआ तो उन्होंने उसे हमेशा लोकतांत्रिक तरीके से ही सुलझाया। जब भी कभी कोर्इ ऐसा मुद्दा आया जिसमें लोगों के विचार जानने की बात हुर्इ तो उन्होंने हमेशा सही सोचा और लोगों तथा देश हित की बात की।

संविधान सभा के बाहर भी बड़े नेता राजेन्द्र बाबू से मिला करते थे ताकि वे संविधान की गुत्थियों को सुलझा सकें। सभी लोग आपस में मिलकर उन बातों पर विचार करते थे जिन पर अंदर विचार करना मुश्किल होता या फिर जिनमें बहुत वक्त लगता था। जिस बात में मतभेद की आशंका होती थी या जिसमें फैसला करने में समय लग सकता था, ऐसे मसलों को राजेन्द्र बाबू सभा के बाहर सबसे बात करके आसानी से सुलझा लेते थे।

स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के सारन जिले के जीरादेर्इ नामक स्थान पर हुआ था। भार्इ-बहनों में सबसे छोटे राजेन्द्र बाबू को अपनी मां और बड़े भार्इ महादेव प्रसाद से बहुत ज्यादा लगाव था। अपने भार्इ के कारण ही वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय अरबी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और मां कमलेश्वरी देवी बेहद धार्मिक प्रवृति की महिला थीं। यही वजह थी कि राजेन्द्र बाबू हमेशा सभी धर्मों का सम्मान करते थे।

पांच साल की उम्र से ही राजेन्द्र बाबू को मौलवी के पास अरबी पढ़ने भेज दिया गया। बाद में उन्होंने हिन्दी और अंकगणित की पढ़ार्इ की। राजेन्द्र बाबू की शादी 12 साल की उम्र में ही राजवंशी देवी से हो गयी थी। पेशे से वकील राजेन्द्र बाबू ने पटना औार कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत भी की। फिर वह भगिनी निवेदिता की डाउन सोसायटी में शामिल हो गए। यहीं से स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भागीदारी शुरू हुर्इ। उसके बाद वह महात्मा गांधी के साथ चंपारण के नीलहा आंदोलन में शामिल हुए।

राजेन्द्र प्रसाद अक्टूबर 1934 में बंबर्इ सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। 1939 में सुभाष चन्द्र बोस के पार्टी छोड़ने के बाद वे दोबारा इस पद के लिए चुने गए। 1950 में जब भारत गणतंत्र बना तो उन्हें स्वतंत्र भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया। इस पद पर 12 साल तक रहते हुए उन्होंने आगे आने वालों के लिए एक मिसाल कायम की और 1962 में इस पद से अवकाश लिया।

अपने अंतिम दिन राजेन्द्र बाबू ने पटना के सदाकत आश्रम में गुजारे जहां 28 फरवरी 1963 को उनका देहावसान हो गया।