गांवों में नहीं सुनाई देते आल्हा और मल्हार

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Laloo Bajpai alha samratफर्रुखाबाद: अब ग्रामीण क्षेत्र तेजी से हाईटेक हो रहा है। श्रावण मास चौपाल पर आल्हा-मल्हार और झूला गुजरे जमाने की बात हो गई है। आल्हा और मल्हार न कोई सुनाता है और न कोई सुनने को तैयार है। आल्हा के शौकीन बुजुर्ग अब सीडी या मोबाइल फोन की चिप के माध्यम से आल्हा सुन रहे हैं। आधुनिकता का दौर पुरानी लोककलाओं को मिटा रहा है।

युग परिवर्तन के साथ मौसम में बदलाव का असर लोककलाओं पर खासा पड़ रहा है। करीब डेढ़ दशक पूर्व बरसात जेठ माह के दशहरा से शुरू हो जाती थी जो भादों मास तक होती थी। श्रावण-भादों के दौरान रिमझिम बरसात और फुहार ग्रामीणों को लोककलाओं का प्रदर्शन करने पर बाध्य कर देती थी। गांवों में चौपाल लगा करती थी। आल्हा गायक गायन किया करते थे। ढोलक, मंजीरा, चिमटा, हरमोनियम वाद्य यंत्र के रूप में प्रयोग किए जाते थे। श्रावण मास में अधिकतर बेटियां ससुराल से मायके आ जाती थी। गांवों में अधिकतर पेड़ों पर झूले डाले जाते थे। झूला झूलते समय लोकगीत गाए जाते थे। अब यह सब गुजरे जमाने की बात हो गई है। आधुनिकता लोककलाओं को मिटाने लगी है तो दूसरी ओर मौसम में बदलाव हो गया है। बीते डेढ़ दशक में कई बार सावन में सूखा पड़ गया। इससे ग्रामीणों का मनोबल गिर गया। इसके अलावा फसल उगाने में बदलाव हो गया है। पूर्व में धान, बाजरा तथा ढेंचा और ज्वार की बुवाई करके बरसात के दौरान गांव में ही रहते थे। अब कई तरह की फसलें लिए जाने से किसान को फुर्सत के क्षण ही नहीं मिलते हैं। इसके अलावा गांवों में भी एकल परिवार का दौर तेजी से चल रहा है। इसके चलते लोककलाओं का दौर सिमटता सा जा रहा है।

गांव की बजाए स्टेज शो

ऐसा नहीं है कि पुरानी लोककलाएं पूर्णरूपेण समाप्त हो गई हैं। लोककलाओं से जुड़ी प्रतिभाएं गांवों की बजाए स्टेज शो को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं। इसके चलते कई प्रतिभाएं बड़े शो न मिलने पर क्षेत्रीय लोककला से जुड़ी प्रतिभाएं सीडी बाजार में चले गए। बहरहाल गांवों से लोककला गायब हो रही है।

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