अजब गजब हैं खेल सपा के- सायकिल सिंह बोले हाथ नचा के!
पूरे सम्मान के साथ हम फिर दोहराते हैं। खड़ा खेल फरक्कावादी। जो मान जाए वह सपाई क्या। जो जलेबी न बनाये वह हलवाई क्या। एक थे डा0 राम मनोहर लोहिया। पूरे पचास साल पहिले यहां से चुनाव लड़े थे। कांग्रेस की, पंडित जवाहरलाल नेहरू की फजीहत करते हुए शान से जीते थे। आज के समाजवादी उसी कांग्रेस की कठपुतली बने हुए हैं। वह भी केवल और केवल इसलिए कि कहीं सांप्रदायिक शक्तियां आगे न बढ़ जायें। हम विरोध भी करेंगे। मतदान में बहिष्कार भी करेंगे। चित्त भी मेरी। पट भी मेरी, टैया मेरे बाप को। डा0 लोहिया होते आज के समाज वादियों की प्रशंसा के पुल बांध देते।
चलिए अब आगे बढ़ते हैं। डा0 लोहिया की इसी कर्मभूमि में पूरे नौ माह हो गए। युवा होनहार प्रगतिशील अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बने। जिले के सपाई खरबूजे ने कन्नौज के सपाई खरबूजे को देखकर रंग नहीं बदला। कहने का मतलब यह है कि जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में हुई कलंक कथा को कन्नौज की तर्ज पर समाप्त करने की हिम्मत बड़े से बड़े सूरमा भोपाली उर्फ सायकिल सिंह ने नहीं दिखाई। हाथी सिंह खुलेआम छाती पर मूंग दल रहे हैं। सायकिल सिंह अभी भी शर्म हया जमीर बेंच देने के बदले में मिले नोटों की ठाठ से जुगाली कर रहे हैं। भ्रष्टाचार ताकतवर होता है होता रहे। महंगाई बढ़ती है ठेंगे से। परन्तु कमल सिंह को खिलना नहीं चाहिए बढ़ना नहीं चाहिए। क्योंकि उनसे लड़ने की हिम्मत और फुरसत हमें इसलिए नहीं है। क्योंकि हमें अपनों से ही लड़ने से फुरसत नहीं है।
सायकिल सिंहों में किसी को अपनी एक भाभी को (दूसरी भाभी को नहीं) किसी को अपनी बहू को और किसी को अपने भाई को ब्लाक प्रमुख बनवाने की जल्दी है। संकल्प 2014 अभी दूर है।
तब फिर रिहर्सल कर लेने में क्या परेशानी है। आपको परेशानी है तो बनी रहे। हम हैं सायकिल सिंह। हमें किसी की परवाह न कभी थी। न है और न कभी रहेगी। हम नए जमाने के समाजवादी हैं। बाकी ब्लाक प्रमुखों से डील हो जाने के कारण उन्हें हमने मतलब हम सायकिल सिंहों ने खाने कमाने लूटने के लिए छुट्टा छोड़ दिया है। आखिर वह भी तो हमारे ही भाई हैं। आप इतनी छोटी सी बात नहीं समझते। खैर आप अपनी जानो। हमने सब अच्छी तरह समझ लिया है। भीषण सर्दी हो इज्जत पर बन आई हो। तब फिर अर्ना-वर्ना मत करना। गर्म पानी न मिले, ठंडे पानी से चुपचाप नहा लेना। क्या समझे नहीं समझे। नहीं समझे तब फिर तुम जानो और तुम्हारा काम जाने। हम अभी 28 दिसम्बर को होने वाले महज दो अदद ब्लाक प्रमुखों के चुनाव में बिजी हैं। इसके चलते हमें सैफई महोत्सव फर्रुखाबाद महोत्सव और नये साल के जश्न का मजा खराब करने में भी कोई गुरेज नहीं है। परन्तु जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में पार्टी प्रत्याशी की आन बान शान की वापसी की चिंता बड़े से बड़े सपाई को नहीं है। इस मोर्चे पर लगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
ब्लाक प्रमुखों के उप चुनाव तो बहाना हैं। पूरी पटकथा लिखी जा चुकी है। अमल अभी बाकी है। इसके लिए सही समय इंतजार है। समझने वाले घोषित अघोषित लक्ष्यों का जान रहे हैं। समझ रहे हैं। जब संगठन से लेकर सरकार तक में कोई कानून कायदा व्यवस्था न हो। मनमानी हो। तब फिर किसी को किसी का क्या डर। सबके पास सबका बही-खाता है। जब ऐसा करके, वैसा करके भी उनका कुछ नहीं बिगड़ा। उल्टे प्रमोशन हो रहा है। तब फिर हमारा कोई क्या बिगाड़ लेगा। कब कहां क्या करना है। क्या कहना है। इसके बहाने खोजे नहीं जा रहे हैं तैयार हैं। सपाई अपने नेता धरती पुत्र की संघर्ष यात्रा तथा अन्य निर्देशों पर अमल कभी नहीं करते। करेंगे भी नहीं। क्योंकि वह सच्चे और सच्चे सपाई हैं। परन्तु नेता जी के कथित परिवारवाद को पूरी बेशर्मी से अपनाने में सायकिल सिंहों को किसी प्रकार की कोई गुरेज नहीं है। सभी सायकिल सिंहों को अपने परिवारीजनों का राज तिलक करने कराने की जल्दी है। उसके लिए कुछ भी करना पड़े करेंगे। लोहिया की कर्मभूमि में समाजवाद के प्रवर्तक और जाति तोड़ो आंदोलन के नायक डा. राममनोहर लोहिया को नए समाजवादियों की इससे अच्छी श्रद्धांजली और क्या हो सकती है।
वह आये भी चुपचाप और चले भी गए चुपचाप
कभी अपनी खुद की दुनिया के स्वयंभू बेताज बादशाह रहे पूर्व सांसद के अपने समर्थकों से यहां आकर मिलने परामर्श करने रणनीति बनाने की खबर परवान नहीं चढ़ सकी। वह स्थानीय मीडिया किंग के हमराज की मेजबानी से भी मीडिया की सुर्खियों में नहीं आ पाये। यह दिनों का फेर ही कहा जाएगा। वैसे भी अपने यहां नगर पालिका से लेकर संसद तक मीडिया से चलकर राजनीति में आने वालों का रिकार्ड कोई बहुत अच्छा नहीं रहा। भले ही अब भी कुछ लोग अपने को तीस मार खां समझते हों। हमला करना और हमला झेलना दो अलग चीजें हैं। राजनीति में विशेष रूप से चुनावी राजनीति में कूदने के इच्छुक मीडियाकर्मी इस बात को जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा है। पूर्व सांसद के कथित गेट-टुगेदर में गिनती के लोग ही आए। जो आए भी वह भी किसी न किसी मजबूरी में। भले वह पुराने रिश्तों को ढोने या निभाने की ही मजबूरी क्यों न रही हो। मिलने वालों में बहुतों के नए नेता और गाडफादर हैं। वह हालात का जायजा लेने गए थे। सच्चाई यह है कि कुछ निजी रिश्तों को छोड़कर आजकल राजनीति में बहुत कम लोग ही नेताओं से बिना स्वार्थ के जुड़ते हैं। दस माह पूर्व और आज बसपा, सपा नेताओं के दरबारों की रौनक के फर्क से इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
जो राजा कभी फकीर था। देश की तकदीर था। पूर्व सांसद अब उसका सार्वजनिक रूप से नाम लेने में पर्याप्त सावधानी बरतते हैं। कई दलों और गुटों के सफर के कारण साख भी पहले जैसी नहीं रही। परन्तु बात चीत केवल बात चीत की मीठी मुस्कराती अदा अब भी अच्छी लगती है। उनके पुराने दिनों की याद दिलाती है। जब उनकी तूती बोलती थी। तब वह किसी से कुछ भी कह देते थे। व्यस्तता का ओर छोर नहीं था। दोस्त शुभचिंतक निराष हताश होते गए। क्योंकि उन्हें यह भ्रम हो गया था कि सच और सही केवल और केवल वही बोलते हैं। व्यस्तता उनकी आज भी पहले से कम नहीं है। ठाठ-बाट में भी कोई परिवर्तन नहीं है। परन्तु स्थानीय स्तर पर उनके वर्षों पुराने समर्थक कुछ सजातीय और उपकृत लोगों को छोड़कर हताश और निराश हैं। कभी उनके स्थानीय प्रतिनिधि रहे लोक समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष से पूर्व सांसद की भेंट वार्ता हुई या नहीं। हुई तो क्या हुई। इसकी खोजबीन जारी है। पता लगा तो बतायेंगे। आओ! तुम तो अपने हो घर को हो। हम फर्रुखाबादी बाहरी लोगों को दोनो हाथ फैलाकर गले लगाते हैं। एक बार फिर से लोकसभा का चुनाव लड़ लो। हो सकता है तुम जीत जाओ और देश का विदेश मंत्री हार जाए।
ककड़ी के चोर को कटारी से मत मारो जिलाधिकारी जी!
बड़ी खबर है। कड़क और सख्त जिलाधिकारी ने नगर पालिका फर्रुखाबाद में वर्षों से कार्यरत 48 कर्मचारी निलंबित कर दिए। परन्तु निलंबित कर्मचारियों को नियुक्ति देने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाने वालों के विरुद्व उद्धरणीय कार्यवाही क्यों नहीं की गई, जिससे भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
जानकार लोगों के अनुसार इनमें से कोई भी नियुक्ति कथित रूप से बिना भारी रकम लिए नहीं की गई। नियुक्ति अधिकारी को भी यह अच्छी तरह पता था कि वह पूर्णतः नियम विरुद्व ढंग से लोभ, धमकी या धौंस के चलते नियुक्ति कर रहा है। अब इतने लम्बे समय तक कार्यरत रहकर यह सभी कर्मचारी जिनकी नयी सेवा की आयु भी निकल चुकी है। अब क्या करेंगे और कहां जायेंगे। कई निलंबित कर्मचारी तो नगर पालिका में कार्यरत। सेवा निवृत्त वरिष्ठ अधिकारियों के पुत्र हैं। कुछ तत्कालीन नगर पालिका अध्यक्ष के विशेष कृपा पात्रों के सगे सम्बंधी हैं। उन्हें पता था कि उनके पाल्य की पूर्णतः गलत नियुक्ति हो रही है। फिर भी उन्होंने यह सब होने दिया।
जिलाधिकारी जी! यह बहुत बड़ा स्केन्डल है। केवल कर्मचारियों को निलंबित करना ही पर्याप्त नहीं है। 48 लोगों के भविष्य से कथित रूप से भारी धनराशि वसूल कर खिलवाड़ करने वाले लोगों के विरुद्व कड़ी से कड़ी विधि सम्मत कार्यवाही भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने के आपके अभियान की सफलता के लिए बहुत जरूरी है। विश्वास है आप इतनी हिम्मत दिखायेंगे।
प्रोन्नति में आरक्षण क्यों!
सही है परिवार में कोई बच्चा कमजोर है। तब फिर स्वस्थ बच्चों को मिलने वाले दूध में कटौती करके अस्वस्थ और कमजोर बच्चे को देने में कोई हर्ज नहीं है। परन्तु बीमार कमजोर बच्चे के स्वस्थ हो जाने पर भी यह व्यवस्था जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। प्रोन्नति में आरक्षण हमारी समरसता और आपसी भाईचारे, प्रेम, व्यवहार के माहौल में विष घोलने का कार्य करेगा। सरकारी कर्मचारी सहयोगी सहकर्मी न होकर एक दूसरे के विरोधी और दुश्मन बन जायेंगे। राजनीति के कुशल खिलाड़ी अपने निजी स्वार्थों के लिए यही चाहते हैं। आरक्षण को विकास की की सीढ़ी ही बनाए रखिए। अपने घर का जीना मत बनाइए। आरक्षण लीजिए। परन्तु आरक्षण का लाभ लेकर अपनी दक्षता और योग्यता को बढ़ाने का प्रयास पूरे मनोयोग से करिए। केवल बैसाखियों पर कोई भी लंबी रेस का घोड़ा साबित नहीं हो सकता।
यह आरक्षण का स्वार्थ पूर्ण प्रयोग ही है। जिसके चलते साठ से अधिक सालों से प्रभावी आरक्षण के बाद भी साठ दलित भी सीना तान कर और छाती ठोंक कर यह कहने की हिम्मत नहीं दिखा सकते कि अब उन्हें या उनके परिवार को आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। अब हमारे समाज के ही अन्य कमजोर लोगों को आने दीजिए। मायावती जी आज प्रोन्नति में आरक्षण की प्रबल पक्षधर हैं। अगर उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह सामान्य सीट से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पातीं। तब फिर उनके समाज के अंतिम व्यक्ति को आरक्षण का लाभ कब मिलेगा। प्रोन्नति में आरक्षण के विरोधियों के अपने कुछ स्वार्थ हो सकते हैं। परन्तु प्रोन्नति में आरक्षण का समर्थन अपने ही समाज की अनदेखी करने के साथ ही स्वार्थ वादिता की पराकाष्ठा है। वोट बैंक की इसी निकृष्ट राजनीति सहित राजनीति की सारी गंदगी और सड़ांध को समाप्त करने के लिए निष्पक्ष और निर्भीक होकर शत प्रतिशत मतदान करना वर्तमान हालातों में अनिवार्य हो जाता है।
और अंत में- गुजरात के चुनाव का सबक- भाजपा कांग्रेस कुछ भी कहे। गुजरात और उससे पहले हिमाचल में हुए भारी मतदान ने नेताओं को अंदर से हिला कर रख दिया है। लोकतंत्र का जागृत लोकतंत्र का यही कमाल है। जनता मतदाता जब जागता है, तब सत्ता लोलुप नेताओं पर कहर बन कर टूटता है।
विडंबना देखिए घनघोर हाईटेक चुनाव प्रचार के दौरान किसी भी पार्टी के किसी भी नेता ने मतदाताओं से यह कहने की हिम्मत नहीं दिखाई कि वह चाहें जिसे मतदान करें। परन्तु मतदान अवश्य करें। राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की अपनी सीमायें हैं। वह उन्हें तोड़ नहीं सकते। उनकी चुनाव सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं है। लोकतंत्र में असली मालिक जनता है। अब पश्चिमी बंगाल हिमाचल और गुजरात की तर्ज पर पूरे देश की जनता को मतदाता को निष्पक्ष और निर्भीक होकर शत प्रतिशत मतदान करने का संकल्प करना होगा।
चलते चलते – मनमोहन सिंह जी अब आपको क्या हो गया!
प्रधानमंत्री ने नयी और पुरानी सोंच का मामला उखाड़ कर अच्छा ही क्या। अब जो भी किसी नयी चीज का विरोध करेगा। उसे पुरानी सोंच वाला बताकर दरकिनार किया जाएगा। एक अरब बीस करोड़ से अधिक की आबादी वाले देश का प्रधानमंत्री यदि ऐसी बात कहे और करे। तब फिर इसे देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाएगा।
संयोग कहिए या लोकतंत्र की बलिहारी। ऊंचे ऊंचे पदों पर ऐसे लोग आकर बैठ गए हैं कि कुछ पूछों मत। उन्हें वालमार्ट का प्रमोशन अच्छा लगता है। सादा जीवन उच्च विचार की कार्य शैली उन्हें पुराने सोच और जमाने की बात लगेगी। मनमोहन सिंह की सादगी, ईमानदारी और योग्यता के हम सभी लोग यहां तक उनके विरोधी तक कायल हैं। परन्तु अपने अभी तक के कार्यकाल में वह अपने इन गुणों से कोई सीख अपने सहयोगियों को नहीं दे पाये। उनके सहयोगियों के बेतुके बचकाने वयानों की लम्बी सूची है। परन्तु उनके कल दिए गए बयान से ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री पर उनके सहयोगियों का प्रभाव पड़ने लगा है। अन्यथा वह इस प्राचीन देश किसानों के देश के लोगों को पुरानी सोंच का व्यक्ति बताकर अपमानित नहीं करते। नया सब कुछ अच्छा नहीं है। पुराना सब खराब नहीं है। नये और पुराने को अपने विवेक के तराजू पर तौल कर उचित अनुचित का निर्णय करने की सलाह हमें हमारे पुरखों ने दी है। क्या आप इसे भी पुरानी सोंच की बात कहेंगे। क्या ‘‘सर्वभूत हितेरतः’’ ‘‘वसुधैव कुटुंबकम्’’ सर्वे भवन्ति सुखिना सर्वे सन्तु निरामया, गौतम, गांधी, गुरु नानक, तुलसी, सूर, कबीर आदि की बातें पुरानी सोंच की बताकर छोड़ दी जानी चाहिए। आज बस इतना ही। जय हिन्द!
सतीश दीक्षित
एडवोकेट