फर्रुखाबाद: वर्ष 2012 समाप्त होने को है। पूरे साल की राजनैतिक समीक्षा करें तो यह वर्ष भाजपा के लिये फजीहत का साल ही कहा जायेगा। विधान सभा में डेढ सौ से भी कम वोटों से हारने के बाद नगर पालिका अध्यक्ष के चुनाव में तो पार्टी जमानत तक जब्त करा बैठी। बसपाइयों के लिये सत्ता का सूरज डूबा, तो सपाइ्यों के हाथ सत्ता आने के साथ ही उनकी अंतर्कलह सड़कों पर नजर आयी। कांग्रेस के लिये खोने को कुछ था ही नहीं सो न सावन हरे न बैसाख सूखे की मिसाल रही। सलमान खुर्शीद के खिलाफ केजरीवाल के आंदोलन के दौरान उनकी जो थू-थू हुई उसका हिसाब सोनिया ने उनका कैबिनेट में प्रोमोशन कर पूरा कर दिया।
साल की शुरूआत विधान सभा चुनाव के साथ हुई थी। मौसम की ठंड पर राजनीति की सरगर्मियां हावी रहीं। धुंआधार कनवेसिंग, रात के अंधेरे में सेंधमारियों की छापामार रणनीति, शराब की गंगा और नोटों की रेलमपेल सबकुछ चला। डाक बंगलों में बैठा चुनाव आयोग सबकुछ टुकुर-टुकुर देखता रहा या देख कर भी अनदेखा करता रहा। सपा, बसपा, भाजपा व कांग्रेस के प्रत्याशियों के बीच निर्दलीय विधायक उस्ताद विजय सिंह बहुत महीन ‘ड्रिब्लिंग’ कर के गोल कर गये, बाकी सब टापते रह गये। भाजपा की अंतर्कलह के चलते मेजर सुनील दत्त द्विवेदी मात्र 147 वोटों से चुनाव हार गये। परंतु विजय सिंह को भी इस चुनाव में बडा धक्का लगा। पहली बार मुस्लिम मतों पर उनके एकाधिकार की ‘मिथ’ टूट गयी। परंतु बसपा प्रत्याशी उमर खां व विदेश मंत्री की पत्नी लुईस खुर्शीद के बीच वोटों के बंटवारे के चलते भाग्य का छींका उन्हीं के सर पर टूट गया।
विधान सभा चुनाव के जख्म अभी भाजपा ढंग से सहला भी नहीं पायी थी, कि चंद माह बाद ही नगर पालिका का चुनाव सर पर आ गया। भाजपा से प्रत्याशी बनने को लेकर उहापोह की स्थिति बनी रही। अंतिम समय में विधानसभा चुनाव हार चुके मेजर सुनील दत्त द्विवेदी की पत्नी को प्रत्याशी बनने की अटकले लगना शुरू भी नहीं हो पायीं थीं, कि अचानक उनके गले का ‘इन्फेक्शन’ जोर मार गया, और वह पीछे हट गयीं। आनन फानन में बार एसोसियेशन के सचिव संजीव पारिया की पत्नी माला पारिया को मैदान में उतार कर शहीद कर दिया गया। स्थिति यह है कि अब स्वयं संजीव पारिया तक का भाजपा से मोह भंग हो चुका है। वह खुले आम भितरघात के आरोप लगा रहे हैं। चुनाव के दौरान जैसे तैसे उन्होंने मतदान का पाला छुआ। परिणाम आये तो भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी की जमानत जब्त हो चुकी थी। इस चुनाव में नगर पालिका अध्यक्ष रहते अनेक आरोपों से घिरे बसपा एमएलसी मनोज अग्रवाल ने अपनी पत्नी वत्सला अग्रवाल को चुनाव जिता कर अपनी राजनैतिक गणित का सिक्का अवश्य मनवा लिया। चुनाव के दौरान उन्होंने न केवल विधायक विजय सिंह की पत्नी व पूर्व पालिकाध्यक्ष दमयंती सिंह को धूल चटा दी, सत्तारूढ दल सपा व कांग्रेस की संयुक्त प्रत्याशी सलमा बेगम को भी हरा दिया।
पालिका चुनाव के बाद शुरू हुए भाजपा के संगठनात्मक चुनाव भी पार्टी के लिये फजीहत ही बने, और आज तक बने हुए हैं। पार्टी के भीतर गुटबंदी के चलते लगभग चार माह बाद भी जिलाध्क्ष का चुनाव तो दूर अनेक मंडलों के चुनाव नहीं हो सके हैं। कई चुनाव अधिकारी बदले गये। संतुष्टों और असंतुष्टों की लखनऊ से कानपुर तक की दौड़-धूप और गणेश परिक्रमा का दौर आज तक जारी है।
पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापसी करने वाली समाजवादी पार्टी का हाल भी खराब ही रहा। भीतरी गुटबंदी के चलते पार्टी की नगर पालिका प्रत्याशी बुरी तरह चुनाव हार गयी। मोहम्मदाबाद विधान सभा क्षेत्र समाप्त होने के बाद नव सृजित क्षेत्र अमृतपुर से चुनाव जीत कर मंत्री बने नरेंद्र सिंह यादव जनपद में तैनात कड़क जिलाधिकारी की तैनाती के चलते सत्ता का स्वाद नहीं ले सके। वहीं जनपद की विधान सभा चुनाव हारी एक मात्र प्रत्याशी उर्मिला राजपूत मंत्री की वक्र दृष्टि के चलते लगातार ‘साइडलाइन’ चल रहीं हैं। हद यह है कि जिस कार्यकर्ता पर उनका ठप्पा लग जाता है, उस के लिये पार्टी के भीतर मुसीबत आ जाती है। परंतु अपने आक्रामक तेवरों के लिये शुरू से चर्चित श्रीमती राजपूत ने अभी तक हथियार नहीं फेंके हैं। उल्टे मंत्री समर्थित ब्लाक प्रमुख बढपुर के पार्टी प्रत्याशी के विरुद्ध अपनी नामारासी बहू को चुनाव लड़ाने का ऐलान कर रखा है।