लखनऊ:यूपी के सियासी घमासान में बड़ी उम्मीदों और बड़े-बड़े दावों के साथ लाए गए रणनीतिकार प्रशांत किशोर का जलवा एकदम से गायब होता दिखाई दे रहा है। माना तो ये भी जा रहा है कि प्रशांत किशोर की कांग्रेस से विदाई हो रही है और वो सिर्फ औपचारिकताओं का इंतजार कर रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस के कई बड़े नेता लंबे समय से पीके के काम करने के तरीके से खुश नहीं थे। ऐसे में अगर ये कहा जाए कि पीके के कांग्रेस से विदाई या उनकी महत्ता कम होना तय हो गया तो कुछ गलत नहीं होगा।
अब सवाल ये उठता है कि पार्टी के साथ सूबे में मार्च 2016 से लगातार काम कर रहे पीके के जाने के बाद कांग्रेस पर इसका क्या असर पड़ेगा? क्या पीके की कार्यशैली से परेशान कांग्रेस नेता पीके की विदाई के बाद खुलकर काम कर पाएंगे और पार्टी के लिए सकारात्मक बदलाव लाने में सफल होंगे? या फिर कांग्रेस के इस रणनीतिकार के जाने के बाद पार्टी को चुनाव में जाने के लिए कोई भी रणनीति दिखाई नहीं देगी? पार्टी के दफ्तर में प्रशांत किशोर की टीम के बैठने के लिए जो जगह दी गई थी पिछले कुछ दिनों से आईपैक की टीम नहीं बैठ रही है। इन संकेतों के बाद सूबे में चुनावों से पहले कांग्रेस की राह मुश्किल ही दिखाई पड़ रही है।
दरअसल, प्रशांत किशोर ने पिछले 9 महीनों में गर्त में जाती कांग्रेस को संगठन के तौर पर मजबूत करने का काम किया था। जिस कांग्रेस की राज्य के सियासी गलियारों में पूछ ही खत्म हो गई थी उसे यूपी के जरिए प्राइम टाइम में लाने का श्रेय प्रशांत किशोर को ही जाता है। यूपी के आने वाले चुनावों में कांग्रेस का रिजल्ट कुछ भी आए उस पर राहुल की किसान यात्रा से जरूर जोड़कर देखा जाएगा। इस यात्रा को भी कराने के पीछे केवल और केवल प्रशांत किशोर का ही दिमाग था। तो साफ तौर पर ये माना जा सकता है कि बिन पीके कांग्रेस को एक बार फिर खुद को खड़ा करना होगा और बिल्कुल सामने दिखाई दे रहे चुनावों में ये पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
प्रशांत किशोर के बिना कांग्रेस के लिए एक संगठन के तौर पर कुछ भी सकारात्मक नजर नहीं आता है। क्योंकि पार्टी एक बार फिर उन खेमों में बंट सकती है जो पीके के आने से दब से गए थे। दरअसल, राहुल गांधी को सीधे रिपोर्ट करने वाले प्रशांत किशोर के कद से राज्य का कोई भी नेता बराबरी नहीं कर पा रहा था, खुद राहुल अपनी किसान यात्रा से बेहद खुश थे। ऐसे में पीके के जाने के बाद नेता जरूर आगे बढ़ सकते हैं लेकिन पार्टी गुटों में बंट सकती है जो चुनावों से पहले पार्टी के लिए सही नहीं होगा।
वहीं दूसरी ओर कांग्रेस से अलगाव के बाद भी प्रशांत किशोर सूबे में अपने अनुभव का लाभ लेते नजर आ सकते हैं। प्रशांत राज्य के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार का साथ दे सकते हैं जिनके साथ वो बिहार में काम कर ही रहे हैं। प्रशांत ने कई दौर की मुलाकातें सपा के बड़े नेताओं और सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव से की है। नीतीश की जदयू और रालोद सूबे में मिलकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं और पीके इन छोटी पार्टियों के गठबंधन की सपा से गठजोड़ की कड़ी भी साबित हो सकते हैं।
साफ तौर पर कांग्रेस अगर प्रशांत किशोर का साथ छोड़ती है तो वो अपने आप को वहीं पाएगी जहां वो 2012 के विधानसभा चुनावों के वक्त थी। सोनिया, राहुल और प्रियंका के नाम पार्टी को खबरों में तो ला सकते हैं लेकिन नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षा पार्टी को जमीन पर खड़ा करने में बड़ा रोड़ा बन सकती है। प्रशांत किशोर के काम से भले ही कांग्रेसी नेता खुश न हों, लेकिन पीके टीम की रणनीतियों से राहुल गांधी ने सभी जिलों में पहुंचने में और कांग्रेसियों के जोश को बढ़ाने में सफलता पाई थी। साफ तौर पर ऐन चुनावों से पहले पीके के हटने से कांग्रेस ढाक के तीन पात की तरह वहीं की वहीं रह जाएगी, लेकिन हो सकता है कि पीके नीतीश के सहारे अपनी इमेज बनाने में फिर भी आगे निकल जाएं।