अर्जुन के “ब्रहन्नला” बनने से पूर्व भी विश्व में समलैंगिंग रिश्ते थे

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भारत ही नहीं संभवतः दुनिया के सबसे पुराने एवं ग्रंथों में से एक वात्स्यायन रचित कामसूत्र में भी समलैंगिकों  के बारे में विस्तृत वर्णन है। दरअसल, वैदिक काल में इन्हें नपुंसक की श्रेणी में रखा जाता था। दरअसल नपुंसक का तब अर्थ था- वे पुरुष, जो तीसरी प्रकृति के हैं तथा संतानोत्पत्ति में विश्वास नहीं रखते। सिपर्फ इन्हीं लोगों को यानी समलैंगिकों को ही मुखमैथुन की इजाजत थी। ऐसे समलैंगिक पुरुष जो स्त्रियोचित व्यवहार रखते थे, वे अलग पहचान में आते थे। दोनों ही तरह के समलैंगिक पुरुषों को स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बनाकर रहने की आजादी थी। पुरुष-पुरुष बिना शादी किये एक साथ रह सकते थे। वे चाहें तो उनके लिए गंर्ध्व विवाह की सुविध भी उपलब्ध् थी। समलैंगिकता को तब माता-पिता सामान्य प्रकृतिक घटना मानते थे।

वेदों के बाद दूसरे पुराग्रंथों पर आयें तो महाभारत काल में अर्जुन के ब्रहन्नला बनने से लेकर तमाम ऐसी घटनाओं के वर्णन मिलते हैं, जो ट्रांसजेंडर और होमोसेक्सुअल के बारे में इंगित करते हैं। राजा विराट का उदाहरण पठनीय है। ईसाइयों के ओल्ड टेस्टामेंट में कहा गया है कि ऐसे लोगों को दैवीय अग्नि परेशान करेगी। इसका सापफ अर्थ है कि ईसा के जमाने में भी इसका खासा प्रचलन था। अतः देखा जाये तो समलैंगिकता आदिकाल, पुराकाल, वर्तमान काल यानी हर कालखंड में मौजूद थी।

यह सिलसिला गुप्त काल तक निर्बाध् चला। मुगल काल के दौरान भी भारत में समलैंगिकता को खूब बढ़ावा मिला, पर तब वैदिक काल सरीखा समर्पण, विश्वास इन रिश्तों में न होकर आयाशी इसका पमुख कारण बन गया। उत्तर भारत के तमाम राजा, नवाब तथा दूसरे रईस अपने समलैंगिक शौक के लिए चर्चित रहे। लार्ड विलियम वैंटिक के जमाने में तो पशासनिक स्तर पर इसके लिए कार्रवाई करनी पड़ी थी। आजादी के बाद नये संविधान और कानून में इसे अपाकृतिक और जुर्म करार देने के बाद पफर्क इतना आया कि जो व्यवहार तब थोड़ा खुलेआम और जाना-पहचाना था, वह छिप-छिपाकर होने लगा।

अस्सी के दशक में तमाम सर्वेक्षणों से पता चला कि भारतीय समाज में भीतर-ही-भीतर एक अनूठी यौन क्रांति जन्म ले रही है। यह भी पता चला कि समलैंगिक स्त्री-पुरुष कापफी संख्या में हैं, वे सामान्य लोगों की भांति अपने अधिकार चाहते हैं। अस्सी के दशक के अंत में तथा नब्बे के दशक में समलैंगिकों के दो विश्व स्तर के सम्मेलन भारत में हुए। धरा 377 भा.दं.वि. को लेकर तमाम विरोध-पदर्शन किये गये और लेख इत्यादि लिखे गये। तमाम ख्याति पाप्त डिजाइनरों, कलाकारों, बु(जीवियों, कुछ पत्राकारों ने खुलेआम घोषणा की, कि वे समलैंगिक हैं। आज मुंबई समलैंगिक पुरुषों की राजधनी है तो दिल्ली दूसरे नंबर पर है। देश के लगभग सभी छोटे-बड़े शहरों में तमाम समलैंगिक समजुट हैं। इंटरनेट ने देश-विदेश के तमाम समलैंगिकों को विश्वस्तर पर जोड़ दिया है।

समलैंगिक रिश्तों में स्त्रियाँ भी किसी लिहाज से पीछे नहीं रहीं। अगर एक नजर उनके इतिहास में भी डालें तो पता चलेगा कि चाहे पत्यक्ष हो या अपत्यक्ष लेस्बियन रिश्ते हमारे इतिहास में मौजूद है। लेस्बियन का मोटे तौर पर अर्थ है, `वे महिलाएं जो समान लिंग की तरपफ आकर्षित होती है और उनसे शारीरिक या यौनतृप्ति पाप्त करती हैं। अपने देश में ये रिश्ता गुमनाम या अनाम है।देश हो या विदेश इस धर्ती पर इनकी उपस्थिति प्रत्येक देश, काल, समाज में बनी रही। राजा, महाराजा, व्यापारी, कुलीन वर्ग, निचला तबका, मध्यम और उच्च वर्ग कोई भी श्रेणी इनसे अछूती नहीं है।

भारत में पूर्व वैदिक काल के कुछ उदाहरणों और वेदों में भी इसका उल्लेख मिलता है। ऋगवेद में ऊषा और नक्ता के चरित्रा समलिंगी प्रणय दर्शाते हैं। व्यास लिखित महाभारत में भी ऐसे रिश्तों की ओर संकेत मिलते हैं तो रामायण में भी। मुगलकाल में इस्लामी कानून इस मामले में बड़े सख्त थे। पर पर्दे के पीछे इस तरह के रिश्ते पनपते रहे। ऐसे कई किस्से और ऐतिहासिक उदाहरण बड़ी आसानी से मिलते हैं और शोध् करने पर तमाम पमाण भी। रजिया भले ही याकूत से प्रेम करती थी पर वह समलिंगी थी सभी जानते हैं। चूंकि सत्ता उसके हाथ थी उसे कोई सजा नहीं दे सका।

आजादी के पहले का हिन्दी-उर्दू साहित्य भी इन रिश्तों की गवाही देता है। इस्मत आपा की कहानी “लिहाफ” तो मशहूर ही है ढेरों किस्से ऐसे रिश्तों का बखान करते हैं। आजादी के बाद प्रभावशाली और पैसे वालों के घर थोड़ा खुलापन आया, उनके वहां इस तरह के रिश्ते छुपे तौर पर बिना शोर शराबा किये, दंड दिये, स्वीकार लिये गये। समय तेजी से बदला और धरे धरे स्त्री-स्त्री संबंधें की चर्चा भी खुले तौर पर लोग करने लगे है।