आइए! चिंतन मंथन करें- कोल्हू के बैल बनें!
चुनाव हो गए- परिणाम सामने आ गए- सरकार बन गई- जो जीत गए वह अपने अपने तरीके से महंगे चुनाव की क्षतिपूर्ति में लग गए हैं। अगले और महंगे चुनाव की तैयारी का गुंताड़ा बना बिगाड़ रहे हैं। जो हार गए हैं वह चिंतन मनन मंथन समीक्षा में लगे हैं।
मुंशी हर दिल अजीज जैसे भरे बैठे थे – चिंतन बैठक के विषय में पूछ दिया मियां झान झरोखे ने स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ऐसे विफरे कि सम्हालना मुश्किल। बोले मियां हमारा मुंह मत खुलवाओ। क्या करोगे जान कर समीक्षा बैठक के विषय में। यह जो लखनऊ दिल्ली के नेता हैं न। इनका सब कुछ दिल्ली लखनऊ में ही होता है। यह चुनाव के दिनों में अपना तमाशा दिखाने झूठ का व्यापार करने फर्रुखाबाद आते हैं- चुनाव खत्म हारे जीते खेल खत्म। दौरान चुनाव यह इतने तमाशे दिखाते हैं, इतना प्रेम बरसाते हैं, इतने विनम्र हो जाते हैं कि क्या कहने। यह ऊपर से जितने उजले हैं अंदर से उतने ही काले हैं।
मुंशी बोले पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम का कहना है कि अच्छा नेता वह होता है जो हार की जिम्मेदारी स्वयं लेता है। जीत का श्रेय साथी कार्यकर्ताओं को देता है। पर अब अच्छे लोगों की अच्छी बातें सुनने मानने और समझने की हिम्मत किसमें। जीत गए तो तीसमार खां हैं। हार गए तो सब कुछ कार्यकर्ताओं, जनता के माथे पर यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ। जो जीता वही सिकंदर जो हार गया वह बैठ गया घर के अंदर। संगी साथियों पर काटता है जमकर बवंडर।
जिस पार्टी को पूरे सूबे में एक भी सीट नहीं मिली, जिनके नेता इस जिले में सबसे ज्यादा बार भाषण प्रवास पर पधारे। उनकी समीक्षा बैठक में केवल इस बात पर जश्न मनाया गया कि हमने कमल घाटियों का सूपड़ा साफ कर दिया। चार में से तीन प्रत्याशी अरबपतियों की श्रेणी में आते हैं। वेशुमार पैसा, वेशुमार खर्चा न कोई नीति न कोई सिद्धान्त। सत्ता की कुंजी हमारे हाथ में रहेगी। कुंजी हाथ में रह गयी सत्ता का ताला प्रबल बहुमत के साथ खुल गया। पूरी की पूरी पार्टी बन गई टपोरीलाल।
सायकिल पर सख्ती के दौरान जिनकी हनक का लोहा सभी मानते थे। गुजरे जमाने की हीरोइन के साथ उड़न खटोले पर चुनाव प्रचार समाप्त होने के कुछ घंटे पहले पधारे और भाषण देकर चले गए। जनता ने अच्छी समीक्षा बैठक लायक भी वोट नहीं दिए। समीक्षा, परीक्षा, वरिक्षा, तिलक, विवाह सबका सब निपट गया। सही कहा है रहिमन चुप हुई बैठिए देख दिनन के फेर।
मुंशी अपनी रौ में बहे जा रहे थे। मियां झान झरोखे मंत्रमुग्ध से सुने जा रहे थे। बोले साइकिल वालों का तो खेल ही अजब गजब है। जिन तीन सीटों पर युवराज ने दौरा किया तीन की तीनो उम्मीद से ऊपर जीत गए। जिस चौथी सीट पर मुखिया ने राखी का वास्ता देकर वोट मांगे वहां जमानत तक नहीं बची। पिछड़ों की दुहाई, मुस्लिम चेयरमैन और जाने क्या-क्या किया कर्म कोई टुटका काम नहीं आया। अब दर्जन डेढ़ दर्जन कथित भितरघातियों की सूची हाथ में लेकर कार्यवाही की धौंस धमकी दी जा रही है। चुपचाप बैठे मियां झान झरोखे से नहीं रहा गया मुंशी को बीच में ही रोक कर बोले-
किसी को क्या पड़ी सोचे तुझे नीचा दिखाने को,
तेरे आमाल काफी हैं तेरी हस्ती मिटाने को।
मुंशी हरदिल अजीज कुछ नार्मल होकर बोले। सच कहते हो मियां- जिले में विशेष योग्यता वाला 75 प्रतिशत परिणाम रहा। सूबे में सरकार बनी। परन्तु बिना किसी समीक्षा बैठक के स्थानीय मुखिया को हटा दिया। बेचारे जिले में घूमघूमकर जीत का स्वाद ले रहे थे। आ गया हाईकमान का फरमान। अब औरों की खबर लेने वाले स्वयं दर-दर भटक रहे हैं। अब सरकार है उम्मीद है रो धोकर कहीं कुछ पा जायेंगे इसलिए चुप हैं। तबेला सूना पड़ा है। पहिले लोगों को जाने को कहते थे तब भी लोग दिल अभी भरा नहीं का गाना गाते डटे रहते थे। अब उल्टी गंगा बह रही है। टेलीफोन पर लोगों को बुलाते हैं। लेकिन लोग आते नहीं। एक दिलजला टेलीफोन पर ही बोल पड़ा ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं। खनन उद्योग को कथित प्रोत्साहन महंगा पड़ गया। उम्मीद पर दुनिया कायम है। बेचारे लगे हैं लगे रहो भाई सूरमा भोपाली और अंग्रेजों के जमाने के जेलर की तर्ज पर।
कमल घाटियों का तो चिंतन मनन मंथन भोजन, शयन विख्यात है। हिन्दी के कठिन समझी जाने वाली शब्दों की एक सूची इनकी जेब में रहती है। जो जितना बड़ा नेता उसके पास उतनी ही कठिन शब्दों की सूची जो जनता के सिर के ऊपर से निकल जाती है। परन्तु उन्हें चिंता नहीं है। अब जनता ही मूर्ख है। हमारी बात को समझती ही नहीं। समझना ही नहीं चाहती हम क्या करें। चिंतन, मनन मंथन, भोजन, शयन का कभी न समाप्त होने वाला सिलसिला जारी रहेगा। अब इन्हें कौन समझाये, अपने स्वर्गीय पिताओं, दादाओं की विरासत को ही संजोकर रख पाते तो चुनाव जीतकर राजा बेटा बन गए होते। वोट पाने से कठिन काम है दूसरे को वोट दिलाना। मीडिया का बाजा भी तभी अच्छा लगता है जब जनता उसे बजाती है। जब यह बाजा पैसे की हनक और खनक से बजता है तब बेसुरा और वेशर्मी भरा लगता है। मुंशी हर दिल अजीज अपनी रौ में बोल जा रहे थे। हम जो कह रहे हैं। हम उस पर कायम रहेंगे। तुममें हिम्मत हो तब फिर तुम भी कायम रहना।
बातें चल रहीं थीं सूंघते सांघते आ गए खबरीलाल। दिल्ली में हुए स्वागत से फूले नहीं समा रहे थे। बोले क्या हाल है बादशाहों। अपन तो दिल्ली की समीक्षा बैठक से आ रहे हैं। तरमाल खाकर आ रहे हैं। खबरीलाल किसी को बोलने का मौका ही नहीं देते। बोलना शुरू किया तो बोलते ही चले गए। बोले हमने खुली-खुली साफ-साफ कही। लोकतंत्र का खेल बड़ा अजब-गजब है। जनता नेताओं से ज्यादा होशियार हो गयी है। एक सीट पर मैडम जी, दूसरी पर नयी मैडम जी बांकी दो पर दलबदलू जी। जनता ने तो युवराज की मीटिंग में ही फैसला सुना दिया था। अब कोई न सुने तो न सुने। मैडम जी ने सर जी की ऐसी फजीहत कराई कि बेचारे न घर के रहे न घाट के। अभी तक मेडम को फर्रुखाबाद की, कन्नौज, इटावा, एटा की चिंता खाए जा रही थी। किसी ने हाथ को थामने का हौसला नहीं दिखाया। बुरी तरह फटकार दिया। अब अपनी चिंता में घुले जा रहे हैं। 2014 में क्या होगा। ऊपर से सैफई का पहलवान धड़कने बढ़ा रहा है। 2014 नहीं कभी भी हो सकते हैं लोकसभा के चुनाव। सर जी सुधर जाओ- मालिक न करे मेडम जैसा या उससे भी बुरा हाल हो।
मियां खबरीलाल के मुहं पर हाथ रखकर बोले अरे बेमुराद! जले पर नमक मत छिड़क शुभ-शुभ बोल। 2014 या इससे आगे पीछे की मत सोच। कुर्सी कायम बनी रहे लोकसभा चुनाव तक इसकी दुआ कर। सही समीक्षा हो गई खबरीलाल जिसकी उम्मीद कम है। तब फिर युवराज के सर जी, मैडम जी सहित तमाम लाल बुझक्कड़ों को बोरिया विस्तर बांधकर पितौरा, कानपुर, बाराबंकी, झांसी और जाने कहां-कहंा घास खोदनी पड़ेगी 2014 की तैयारी में। अच्छा हो यह शुभ काम लोकसभा चुनाव के बाद स्थायी रूप से हो। बार एसोसिएशन की स्थायी सदस्यता है ही। हर शनिवार, रविवार को जनता के बीच आने का पक्का वादा भी है। यह बात और है कि एक महीने में केवल तीन शनिवार, रविवार को आपके दर्शन फर्रुखाबाद की जनता को नहीं हुए। अब सर जी हैं, मैडम जी हैं दिल्ली में बहुत बिजी शिड्यूल रहता है। इसलिए हे फर्रुखाबाद के लोगों हमारी छोटी-छोटी गल्तियों का माफ करने की आदत डालो। नहीं तो आगे कष्ट होगा। हमारे ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें तो चुनाव हारने जीतने की आदत पड़ गयी है। अच्छे खानदानी लोग हैं। विदेशी डिग्रियों के साथ पढ़े लिखे हैं। दाम दुकड़े की कोई कमी नहीं है। एक दो चुनाव हराकर तुम हमारा क्या बिगाड़ लोगे। अपनी चिंता करो हम नहीं होंगे तब फिर तेरा क्या होगा कालिया। इति श्री दिल्ली समीक्षा बैठक चलो उठो अब सोफे पर काहे पसरे हो। क्षेत्र में जाओ काम करो। जो काम नहीं करेगा उसकी पगार बंद कर दी जाएगी।
चुनाव नहीं यह खेल है
हम कोल्हू के बैल हैं,
फर्रुखाबाद के आलू हैं
तुसे ज्यादा चालू हैं।
तुमको दूध पिलायेंगे
फिर हम तुम्हें छकायेंगे
हमसे भिड़ना खेल नहीं
फर्रुखाबाद में रेल नहीं।
मियां झानझरोखे ने नहले पर जो दहला मारा खबरीलाल की बोलती बंद। खबरीलाल सोच रहे थे। यह मियां अभी तक मुंशी हर दिल अजीज की हां में हां मिलाया करता था। आज तो इसने मेरी भी छुट्टी कर दी। खबरीलाल दांत पीस रहे थे। मन ही मन कह रहे थे अगले इतवार तक तेरा ढोल तमाशा न किया तो मेरा नाम भी खबरीलाल नहीं। मियां ठहरे मियां खबरीलाल के हावभाव पढ़ कर समझ कर बोले-
दुशमनी जम के करो मगर इतनी गुंजाइश रहे,
शर्मिंदा न हों , गर कभी हम दोस्त हो जायें ।
खबरीलाल मियां झान झरोखे का मुहं ताकते रह गए।
जवाहर सिंह गंगवार का ‘शिलालेख’
जिला मुख्यालय पर मुख्य मार्ग स्थित बाबा भीमराव अम्बेडकर की भव्य प्रतिमा के सानिध्य में रहने वाले अधिवक्ता जवाहर सिंह गंगवार से, दो सप्ताह पूर्व उनकी रचित पुस्तक शिला लेख के पूर्व सांसद वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय द्वारा लोकार्पित पुस्तक के विचारों से आपकी भले ही असहमति हो, परन्तु जवाहर सिंह गंगवार की लेखनी, वाणी और जीवटपन की सराहना उनके विरोधियों तक को करनी पड़ेगी। पुस्तक के लोकार्पण के दिन भी यही हुआ।
संतोषभारतीय का तो हर महफिल और कार्यक्रम में अपना पूर्व निर्धारित एजेंन्डा रहता है। इस बार भी था जिसकी परतें अपने आप धीरे-धीरे खुलेंगीं। जिस जाति व्यवस्था को इस लोकार्पण कार्यक्रम पुस्तक शिलालेख की पृष्ठ भूमि में सर्वाधिक कोसा गया। अपने को तरक्कीपसंद जानकर और जाने क्या समझने वाले पूर्व सांसद श्री भारतीय प्रारंभ से अंत तक जाति वादी सोच से बाहर नहीं निकल पाये। सब बुरे हैं। सिस्टम गलत है। व्यवस्था गलत है। केवल और केवल हम सही हैं। जब तक इस सबको ठुकरा कर हमें नहीं अपनाओगे कुछ भी नहीं सुधरेगा। क्योंकि हम दिल्ली हैं। हम व्यवस्था के आगे भीगी बिल्ली नहीं हैं शेर हैं।
हम जब पढ़ते थे तब भी दिल्ली में थे। बाद में भी दिल्ली ही रहे। सांसद बनने से पहले भी दिल्ली में थे। बाद में भी दिल्ली ही रहे। सांसद बनने और न बनने के बाद भी दिल्ली में ही हैं और रहेंगे। हम दिल्ली हैं। हम सभी को लपेटते हैं सभी की खिल्ली उड़ाते हैं। कोई हमारी खिल्ली नहीं उड़ा सकता है क्योंकि हम दिल्ली हैं। हम सबको आइना दिखाते हैं। परन्तु स्वयं कभी आइना नहीं देखते। क्योंकि हम दिल्ली हैं। समझ गए न आप। इसलिए हम पुस्तक शिला लेख के विषय में जो कुछ कहें हमें कहने दीजिए। आपको सुनना है सुनिए। नहीं तो अपना टेलीफोन नम्बर देकर निकल लीजिए। हम आपसे बाद में बात कर लेंगे जो हमने आज तक किसी से नहीं की।
हम दिल्ली हैं। हम अपने पुराने से पुराने और अच्छे से अच्छे साथी सहयोगी को जब चाहें तब छोड़ सकते हैं। जिसे जब चाहें तब अपना सकते हैं। खैर अब केवल इतना समझो कि हम दिल्ली हैं और तुम्हें हमारे सामने भीगी बिल्ली की तरह रहना होगा। वरना…………………..। हम भी अपनी तर्ज पर जो कहते हैं। सच कहते हैं, दो टूक कहते है।
‘शिलालेख’ जवाहर सिंह गंगवार के लंबे चिंतन मनन, पठन पाठन और कर्मठ कर्मयोगी की सतत् जीवंतता का प्रकाश मान आलेख है। इसमें सत्य को स्वीकारने का आग्रह भी है और असत्य अशिव को अस्वीकारने का दुरागृह भी है। जो कहीं कहीं अच्छा लगता है और कुछ जगह खटकता है। वर्तमान महत्व पूर्ण संदर्भों पर लेखक बेबाक टिप्पणी उसके साहस को दर्शाती है। परन्तु पुराना जो कुछ भी है सब कुछ त्याज्य हेय है यह उनके दुस्साहस का प्रतीक है। जब हम पक्ष न होकर पक्षकार बन जाते हैं तब प्रायः ऐसा हो जाता है। परन्तु कारण कुछ भी हों जब वह अपनी कमी और गल्ती को देख मन से स्वीकार लेते हैं। तब अपनी इस उदारता के कारण अच्छे लगते हैं। मैकाले के संदर्भ में उनकी टिप्पणी ऐसी ही है।
जवाहर सिंह गंगवार बार-बार यह कहते हैं जो भोगा वह पाया हमने, अपना फर्ज निभाया हमने। परन्तु इस फर्ज अदायगी में कहीं अतिरेक हुआ है। सत्य केवल वह ही नहीं है जो हमने भोगा है। सत्य उससे भी इतर है। जाति हमारे समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है। परन्तु कोई भी जाति न संपूर्णता अच्छी होती है और न ही बुरी। हर जाति में अच्छा से अच्छा और बुरे से बुरे लोग होते हैं। ईश्वर ने या हमारी जिस किसी में आस्था या विश्वास हो आपने हमें विवेक दिया। अच्छे की प्रशंसा और बुरे की निंदा अपनाने और छोड़ने के क्रम में, करने में हमें कृपणता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि बाप और जाति चुनने की आजादी हममें से किसी को भी नहीं है हो भी नहीं सकती। परन्तु हम किस मार्ग पर चलें किस पर न चलें यह आजादी सभी को है। ‘चूज द वेस्ट एण्ड लेफ्ट दि रेस्ट’ की कसौटी पर चलिए। आप उस सबसे बचे रहेंगे जिससे आप बचना चाहते हैं।
जवाहर सिंह गंगवार अपने श्रेष्ठ और वरेण्य मार्ग की खोज में निकल पड़े हैं। हम अपनी हार्दिक शुभकामनाओं के साथ उनके लिए यही कहना चाहेंगे –
अजानी मंजिलों का राहगीरों को नहीं तुम भेद देते हो,
जकड़कर कल्पना उनके परों की मुक्ति को तुम छीन लेते हो।
नहीं मालूम तुमको है कठिन कितना बनाये पंथ को तजकर
ह्रदय के बीच से उठते हुए स्वर के सहारे
मुक्ति चल पड़ना नए आलोक पथ की खोज में।
गिर गहवरों से, झाड़ियों से झंझरों से, कंकड़ों से, पत्थरों से, रात दिन लड़ना,
भटकने के लिए भी एक साहस चाहिए।
जो भी नए पथ आज तक खोजे गए
भटके हुए इंसान की ही देन है।
और अंत में- खंडित आजादी- ग्राम विकास और ग्राम स्वराज
देश तो आजाद होते हो गया- किन्तु तूने क्या किया
घूसखोरी ढील और सत्ताधंता भाई भतीजावाद।
महज तेजी और यह बाजार कालेज
क्रोध से सब दूषणों की फेर माला
दूसरों को गालियों से पाट डाला।
गालियों तुमको न कोई दे सके
इसलिए बोल तूने क्या किया।
आरक्षण पर अगली बार – जय हिन्द!
सतीक्ष दीक्षित