फर्रुखाबाद, भीकमपुरा में एक बड़ी प्रोफाईल के उम्मीदवार के समर्थन में जनसंपर्क में युवक उस पार्टी के झंडे लपेटे चल रहे थे। उम्मीदवार के समर्थन में वोट की अपील की जा रही थी। जनसंपर्क ख़त्म होने के बाद सभी युवा गल्ला मंडी की एक चक्की पर इकट्ठे हुए। उन्हें नारे लगाने के बदले 100-100 रुपये और काली पोलीथिन में 5-5 पूड़ियों का लंच पाकेट थमाया गया। रुपये देने वाले ठेकेदार ने कहा कि फिर जरूरत हुई तो फिर बताएँगे अपना- अपना मोबाईल नम्बर लिखा कर जाना। एक मासूम झंडे लपेटकर जोकर बना था उसे 200 रुपये दिए गए। यह हकीकत मीडिया के कई साथियों ने अपनी आँखों से देखी। बात उछले न इसलिए मीडिया के साथियों की आरजू मिन्नत कर चाय पिलाई गयी। ठेकेदार ने कहा क्या करैं यह सब चलता है।
पूरे चुनाव ऐसे दृश्य खूब दिखे। आदर्शों की दुहाई देने वाले लोगों ने पूरे प्रचार चुनाव आयोग की आँखों में धुल झोंकी। कोई वन बूथ ट्वेंटी यूथ का नारा लगा रहा था तो कहीं एनजीओ के जरिये संगठन में दाधिकारियों की ताजपोशी की गयी थी, तो कहीं बूथ संगठन कम्प्लीट होने पर टिकट पक्की की गयी थी, तो कहीं पूरे समय बूथ कमेटियों के रजिस्टर ही जंचते रहे। अगर संगठन इतना दुरुस्त था तो फिर नारे लगवाने के लिए रुपये क्यों बांटने पड़े।
अब जब चुनाव निपट गए हैं तो किसी को किसी की लोकप्रियता के बारे में ग़लतफ़हमी नहीं रखनी चाहिए। मीडिया का काम लोगों को सच्चाई से वाकिफ करना है पर्दा- बेपर्दा में वही करने का प्रयास है। नेताओं ने मालाएं पहेनीं तो कहीं अपनी रकम से पटाखे जलवाए, तो कहीं अपनी रकम से पुष्प वर्षा करायी और भाड़े के लोगों से अपनी रकम से नारे लगवाए। लेकिन ऐसा करके किसे धोखा दिया गया यह लोग नहीं जान पाए। जिस घर के बच्चे 100-100 के नोट लाये उनके माँ- बाप को यह हकीकत मालूम थी, उस मोहल्ले में इस करतूत की खासी चर्चा थी और जिन नेता जी की जेब से रुपये निकले उन्हें तो पता था ही। जब पर्दा उठ ही रहा है तो उन नेताओं की भी चर्चा हो जाये जो निष्ठावान बने रहे औए लम्बे- लम्बे भाषण झाड कर नेता जी को रिझाते रहे।
एक नेता जी अपनी पार्टी में जिला महामंत्री हैं उम्मीदवार की जाति के हैं सो उन पर भरोसा होना ही था। ऊपरवाले ने ऐसी सुनी कि उन्हें कोष कि चाबी मिल गयी। फिर क्या नेता जी ने अपने दोनों भाइयों को भी सीजन भुनाने के लिए बुला लिया। अपनी कार को भी उसी उम्मीदवार के काफिले में किराये पर लगा दी। और तो और लंच पाकेटों में भी 2-2 रुपये कमीशन मारने में गुरेज नहीं किया। एक और नेता जी के बेटे नेतागीरी के नाम पर गाल फुलाते हैं। पर चुनाव में नेता जी के पास कैश का जिम्मा था। सो नेता जी ने बेटों को भी पटा लिया। नेता जी तो रहे निपट अकेले। इसलिए जब उम्मीदवार साहेब रणनीति बनाने के लिए जाते तो उनके साथ उनके बेटे और दामाद के अलावा और कोई नहीं होता। ऐसे किस्से इतने हैं कि गिनाने के लिए भी वक्त चाहिए।