होली आई रे: कहां गये वह आलू के ठप्पे और सधवाड़े के रंग…………..

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फर्रुखाबाद:  होली में फर्रुखाबादी आलू भी लोगों के खीजने पर सुनने को मजबूर करता था- बुरा न मानो होली है। आलू के ठप्पे फर्रुखाबादी बच्चों के लिए सबसे आसन थे। और सध्वाड़े के छपाई के रंग बच्चों को आलू के ठप्पे के साथ होली खेलने का अच्छा मौका मुहैया कराते थे। पर गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा…………
होली से 8 दिन पहले ही आलू के ठप्पे बनाने के लिए मोहल्ले के चिरैंदी लड़के तैयार हो जाते थे। बड़े साईज के आलू को बीच से काटा और चाकू से गोदकर होली या चोर जैसा कुछ लिख दिया। छापा बनाने में याद रखना पड़ता था कि उल्टा गोदा जाये जिससे छपने में सीधा आये। ठप्पा बनाया और इस रंग चुपड़ा। ठप्पा लगाने के लिए मौके की तलाश करनी पड़ती थी, और जैसे ही मौका लगा ठप्पा ठोकने के साथ ही चिल्ला कर कह दिया- बुरा न मानो होली है। होली का प्राम्भिक चरण ठप्पों से ही शुरू होता था। मोहल्ले- मोहल्ले युवक ठप्पे बनाने में जुट जाते थे। इतने पहले से घर वाले होली खेलने के लिए खर्चा देते नहीं थे सो मुफ्त में हुडदंग का इससे बढ़िया दूसरा तरीका और क्या हो सकता था। आलू के ठप्पे देखकर होली आ जाने का आभास हो जाता था। अब होली इतने पहले से शुरू भी नहीं होती। लोगों कि सहेनशीलता भी कम हो रही है। बच्चों को होम वर्क से समय नहीं मिलता। होली का लुत्फ़ उठाने के लिए टीवी से चिपक कर बैठ जाना सबसे आसन तरीका बचा है। बच्चे इसे में रम गए हैं।

कहते हैं- गुजरा   हुआ जमाना आता नहीं दोबारा………………