काश कि शिक्षा माफियों के कॉलेज में सर्च वारंट लेकर छापा मारा होता?

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फर्रुखाबाद: हिंदी में दो कहावते हैं एक “जबर मारे और रोने न दे” दूसरी “कमजोर की लुगाई, जग की भौजाई”| ये दोनों कहावते एक दूसरे की पूरक हैं| यानि शिक्षा माफियाओं के कॉलेज में जब भ्रष्टाचार के आरोप लगे तब अधिकारिओ ने कॉलेज प्रबंधन को दस्ताबेजो और अभिलेखों को सही सलामत करने का भरपूर मौका दिया| मीडिया वालों के पूछने पर बताते रहे कि प्रबन्धन रजिस्टर नहीं दिखा रहा है| अरे तब अधिकारिओ ने आश्रम में तलाशी के लिए सर्च वारंट की तरह भ्रष्टाचार के खुलासे के लिए आनन् फानन में सर्च वारंट लेकर क्यूँ नहीं दस्तावेज जब्त कर लिए| इसलिए कि ऊपर की कहावते झूठी न पड़ जाए|

बीएड कॉलेज में भ्रष्टाचार की फाइले अभी कहीं नहीं गयी है| परीक्षा जरुर पूरी हो गयी मगर अब प्रायोगिक परीक्षा में अच्छे नंबर दिलाने के नाम पर 5000/- प्रति छात्र छात्रा वसूला जा रहा है| बाबुओं के पास बाकायदा एक अलग से रजिस्टर है जिस वो टिक लगाकर अंकित करता है कि इस बच्चे के पैसे आये इसके नहीं आये| जिलास्तर के किसी अधिकारी में इतनी कुव्वत भ्रष्टाचार मिटाने और छात्रो को इन्साफ दिलाने की हो तो लो सर्च वारंट और मार लो छापा|

मगर इनसे ये उम्मीद करना अब बेकार है| ये शिकायत के प्रार्थना पत्र का इन्तजार करेंगे और प्रार्थना पत्र मिल भी गया तो उस पर सामने वाले को धमका कर सौदा करते हैं| पिछले एक साल में ही अपर जिलाधिकारी से लेकर विभिन्न एसडीएम ने कितनी जांचे की होगी| किसी का कुछ बिगड़ा| बेसिक शिक्षा अधिकारी रामसागर पति त्रिपाठी ने यदि निवर्तमान जिलाधिकारी की गर्दन न फसा दी होती तो तबादला और निलम्बन तक न होता| उसके बाद अपर जिलाधिकारी सुशील चन्द्र श्रीवास्तव ने बीएसए पर लगे आरोपों की जाँच की| एक दो नहीं कई दर्जन शिक्षको ने बहलफ मय सबूत के दस्ताबेज अपर जिलाधिकारी को सौपे थे| क्या हुआ? राम सागर पति त्रिपाठी वर्तमान में पड़ोस के जिले में बेसिक शिक्षा अधिकारी के पद पर सुशोभित है और उन्ही कार्यो में संलग्न है जो वो यहाँ करते रहे|

कमालगंज के आर पी डिग्री कॉलेज में छापा मरने गयी टीम के अधिकारी मजिस्ट्रेट स्तर के थे| जिलाधिकारी जिन्हें भारत का संविधान असीमित जनहित में शक्तिया देता है, से अनुमति तुरंत अनुमति लेते और सब अलमारी और कमरों के ताले तोड़ अभिलेख लिखापढ़ी में जब्त कर सकते थे| क्यूँ मौका दिया हेर फेर करने का| सब कुछ सही करके कॉलेज का प्रबन्धक प्राचार्य दस्ताबेज सही जचावा गया| ऐसी एक दो जाँच नहीं सैकड़ो मामले हैं| जहाँ माल नहीं वहां कारवाही और जहाँ हरा भरा वहां जाँच में कुछ मिला नहीं| क्या संवैधानिक शक्तिओ का यही सही इस्तेमाल है|

जाँच रिपोर्ट के बारे में मीडिया द्वारा पूछे जाने पर मामले को ऐसे गोपनीय बताते हैं जैसे कोई राष्ट्र सुरक्षा का मामला हो| जनता की शिकायत पर की गयी जाँच रिपोर्ट को जनता में सार्वजनिक न करना ही इन्हें संदेह के घेरे में खड़ा करता है| विभागीय जाँच और जाँच रिपोर्ट तो गोपनीय हो सकती है, सार्वजनिक शिकायत की जाँच गोपनीय हो सकती है मगर सार्वजनिक शिकायत की जाँच रिपोर्ट गोपनीय होती है ऐसा कोई शासनादेश नहीं है न ही सविधान में लिखा है|