पूरे भारत के बारे में मेरा कोई अध्ययन नहीं है अलबत्ता उत्तर प्रदेह के बारे में मैं दावा कर सकता हूँ कि वित्तीय वर्ष के अंतिम माह यानि मार्च महीने में लगभग हर विभाग का मुखिया इन दिनों २०१०-११ के प्रदेश के बजट में स्वीकृत उसका हिस्सा प्रदेश के खजाने से हथियाने और उसे हर हाल में 31 मार्च तक खर्च दिखाने में जुटा है| कई विभागों में तो ये ये खर्च साल के ११ महीनो के खर्च के बराबर है| हाँ यहाँ बात वेतन और भत्ते की नहीं हो रही है, वेतन और भत्ता तो देरी से दिया नहीं कि प्रदेश कर्मचारिओं की हड़ताल पड़ताल शुरू हो जाती है| यहाँ केवल विकास के सम्बन्ध में होने वाले खर्च की है|
शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और समाज कल्याण विभाग में वेतन के अलावा जो खर्च प्रस्तावित होता है वो मासिक या साप्ताहिक के हिसाब से जनता के लिए होता है| मगर उत्तर प्रदेश में जनता को जरुरत के खर्च का अलाम ये है यहाँ एक सूखे की चेक अगले सूखे में और इस साल की बाढ़ की राहत अगले साल की बाढ़ तक मिल पाती है| शिक्षा के लिए सत्र शुरू होता है जुलाई माह में तो ये भी तय है सत्र शुरू होते ही किताबे, ड्रेस, वजीफा और शिक्षा से सम्बन्धित अन्य जरूरी खर्च हर माह नियमित मिलने चाहिए| मगर इनसे से ये खर्च भी सत्र परीक्षा के माह में आ रहे हैं| जो काम 30 दिन से कम में नहीं हो सकता वो 7 दिन में पूरा हो रहा है| साल भर इलाज और जागरूकता के लिए जरुरत का धन 15 दिन में आएगा और खर्च हो जायेगा|
क्या आप ने कभी 3 दिन में अपना मकान बनबाया है, शायद नहीं मगर बेसिक शिक्षा परिषद् ने सर्व शिक्षा अभियान के मद में केंद्र से मिली धनराशि का उपभोग दिखाने के लिए ये कमाल कर दिखाया| पूरे प्रदेश में जहाँ जहाँ मिड डे मील की रसोई नहीं बनी थी, मध्याह भोजन प्राधिकरण ने जिलों में इसी माह बजट भेज 3 दिन में रसोई बनने की रिपोर्ट जिलों से मंगा ली और करोडो उपभोग कर लिए| गर्मियों की छुट्टियों में या सत्र शुरू होने से पहले शिक्षको की होने वाली ट्रेनिंग इस माह में चल रही है कारण शिक्षा गुणवत्ता सुधारना नहीं केवल बजट उपभोग ही कह सकते हैं| एक माह में साल भर के इलाज के लिए दवाइयां खरीदी (कागजो) जा रही हैं| येन केन प्रकरेण धन लूटो| ये धन खर्च का पत्र लखनऊ से जारी हो रहा है और तमाम जिलों में जा रहा है| पत्र का कड़ा और मीठा मजमूम हैं- ” खर्च और उपभोग न भेज पाने की दशा में ये बजट अगले वर्ष के बजट में समायोजित कर दिया जायेगा इसकी आप जिम्मेदार होंगे|
जिलों के आलम से रूबरू होईये- हर विभाग का खजांची यानि लेखाधिकारी रोज नियमित रूप से बैंक और जिला कोषागार के चक्कर लगता है ये देखने के लिए कि अमुक दिन उसके विभाग के लिए कितना धन आया| दफ्तरों के साहब और बाबू लोग दफ्तर से गायब हैं मगर काम २४ में से १८ घंटे कर रहे हैं| वैसे तो कैम्प कार्यालय केवल जिलों में डीएम या पुलिस अधीक्षक के होते हैं चूँकि उन्हें चौबीसों घंटे जनता का ध्यान रखना होता है मगर इन दिनों जिलों में अधिकांश जिला स्तर के अफसरों ने घरो पर कैम्प कार्यालय खोल दिए हैं| मार्च महीने में जिलों में इन अफसरों के निवासो पर रौनक बढ़ी हुई है| ठेकेदार, दुकानदार, सप्लायर, छोटे बढ़े बाबू, दलाल, बिचोलिये, लेखाधिकारी इन निवासो के पास सुबह से ही जमा हो जाते हैं| दफ्तरों के कंप्यूटर अफसरों ने घरो में लगवा दिए हैं| संविदा पर लगे कंप्यूटर ओपेरटर भी दिन रात रगड़े जा रहे हैं| कई जगह तो सरकारी बंगलो में ही ये जनता के धन के अपव्यय के काउंटर गुलजार हो गए हैं| कुछ साहब से पूछो तो एक ही जबाब मिलेगा क्या करें लखनऊ वाले अफसरों का यही आलम है साल के आखिर में बजट भेजते हैं और न खर्च कर पाने पर करवाई की धमकी देते हैं| इसके बाद अप्रैल महीने से साहब लोग जाँच पर आयेंगे और मार्च महीने के बजट के हिसाब की अटैची साथ ले जायेंगे|