नई दिल्ली:अडल्टरी (व्याभिचार) क़ानून पर विवाद नया नहीं है। आजादी के बाद 1954 में पहली बार इस कानून पर सवाल उठाया गया। इसके बाद से कई बार कानून पर सवाल उठते रहे। दरअसल, आजादी के बाद कानून के जानकारों का ये तर्क रहा है कि जब दो वयस्कों की मर्जी से कोई विवाहेतर संबंध स्थापित किए जाते हैं तो इसके परिणाम में महज़ एक पक्ष को ही सज़ा क्यों दी जाए ? हालांकि एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले के बाद यह मामला सुर्खियों में है। आइए जानते हैं क्या है अडल्ट्री क़ानून। आखिर क़ानूनी भाषा में क्या है इसके मायने। क्या है सजा का प्रावधान।
1860 में अडल्टरी क़ानून अस्तित्व में आया
1860 यानी ब्रिटिश राज में अडल्टरी क़ानून अस्तित्व में आया यानी यह 158 साल पूराना कानून है। आइपीसी की धारा 497 के तहत इस कानून को परिभाषित किया गया है। इसके तहत अगर कोई मर्द किसी दूसरी शादीशुदा महिला के साथ उसकी रजामंदी से शारीरिक संबंध बनाता है तो संबंध बनाने वाली महिला के पति की शिकायत पर संबंध बनाने वाले पुरुष को अडल्टरी क़ानून के तहत गुनहगार माना जाएगा। यानी शारीरिक संबंध बनाने वाला मर्द गुनहगार होगा। गुनाह साबित होने पर संबंध बनाने वाले पुरुष को पांच साल की कैद और जुर्माना या फिर दाेनों ही सजा का प्रावधान है। हालांकि, इस अडल्टरी क़ानून में एक पेंच यह है कि अगर कोई शादीशुदा मर्द किसी कुंवारी या विधवा औरत से शारीरिक संबंध बनाता है तो वह अडल्टरी के तहत दोषी नहीं माना जाएगा।
1954 मेें पहली बार अडल्टरी कानून पर उठा सवाल
अडल्टरी कानून पर पहले भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। आजादी के बाद 1954 मेें पहली बार अडल्टरी कानून पर सवाल उठाया गया। इसके बाद वर्ष 1985 और 1988 में भी इस कानून पर सवाल उठे। वहीं 1954 और 2011 में दो बार इस मामले पर फ़ैसला भी सुनाया जा चुका है, जिसमें इस क़ानून को समानता के अधिकार का उल्लंघन करने वाला नहीं माना गया। हालांकि, 2017 में देश की शीर्ष अदालत ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह सवाल किया था कि सिर्फ़ पुरुष को गुनहगार मानने वाला अडल्टरी क़ानून कहीं पुराना तो नहीं हो गया है ? उस वक्त ही इस कानून पर शीर्ष अदालत का रुख साफ हो गया था।
संवैधानिक पीठ का ताजे फैसले का निहितार्थ
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि ये क़ानून मनमाना है और समानता के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। महिला की देह पर उसका अपना हक है, पति महिला का स्वामी नहीं है। इससे कदापि समझौता नहीं किया जा सकता है। यह उसका अधिकार है और उस पर किसी तरह की शर्तें या प्रतिबंध नहीं थोपा जा सकता है।
– यह भारतीय पितृसत्तात्मक समाज का परिणाम है। यानी यह कानून पितृसत्तात्मक समाज का पोषण करता है। पवित्रता का आशय सिर्फ़ महिलाओं के लिए नहीं है और ये समान रूप से पतियों यानी पुरुषों पर भी लागू होना चाहिए।
– पीठ का कहना है कि जो प्रावधान किसी व्यक्ति के सम्मान और महिलाओं के समानता के अधिकार को प्रभावित करता है, वो संविधान के लिए गैर कानूनी है। इसे उचित या सही नहीं कहा जा सकता है। हां, अडल्टरी तलाक का आधार बना रहेगा
इटली में रहने वाले एनआरआई ने दायर की याचिका
दिसंबर 2017 में इटली में रहने वाले एनआरआई जोसेफ़ शाइन ने उच्चतम न्यायाल में एक जनहित याचिका दायर की थी। उनकी अपील थी कि आईपीसी की धारा 497 के तहत बने अडल्टरी क़ानून में पुरुष और महिला दोनों को ही बराबर सज़ा दी जानी चाहिए। इस याचिका के जवाब में सरकार ने कोर्ट में कहा है कि अगर इस क़ानून में बदलाव कर पुरुष और महिला दोनों को सज़ा का प्रावधान किया जाता है तो इससे अडल्टरी क़ानून हल्का हो जाएगा और समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। इस याचिका के जवाब में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि ऐसा करने के लिए अडल्टरी क़ानून में बदलाव करने पर क़ानून हल्का हो जाएगा और समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। जानकार मानते हैं कि इस फ़ैसले का असर कई और मामलों पर भी पड़ सकता है।