हर कोई चाहता है उसको कर्म के परिणाम मिले और वह भी लाभ की शक्ल में। हानि उठाने को कोई भी तैयार नहीं है। जो लोग कर्म और उसके परिणाम के प्रति बहुत आग्रहशील हैं उन्हें अपने तन और मन की गति को संतुलित और नियंत्रित करना पड़ेगा। फकीरों ने कहा है-
मन चलतां तन भी चलै, ताते मन को घेर।
तन मन दोऊ बसि करै, होय राई सुमेर।।
मन से ही तन प्रभावित होता है। जब मन किसी विषय से आकर्षित होकर सक्रिय होता है, तो यह तन भी चलायमान हो जाता है। इसलिए सदैव मन को वश में करना चाहिए। यदि तन और मन दोनों को वश में कर लिया जाए तो इस थोड़े से समय में होने वाले संयम-साधना का परिणाम-लाभ सुमेरु पर्वत के समान पाया जा सकता है।
मन को साधने के लिए यूं तो अनेक तरीके हैं, लेकिन तीन तरीके थोड़े आसान हैं-पहला सत्संग किया जाए। इससे मन को शुभ समय मिलता है। दूसरा गुरु कृपा हो जाए। गुरु मंत्र की ताकत भी मन को नियंत्रित करने में मददगार होती है और तीसरा है थोड़ा योग किया जाए। मन के लिए कहा गया है-
पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुनि-चुनि खात।।
पहले अज्ञान दशा में यह मन कौवे की भांति था। इसका खान-पान, बोल-चाल तथा रंग-ढंग आदि सब अशुभ था। यह हिंसक था, इसीलिए जीवों को घात करता था। परन्तु अब सत्संगति तथा सद्गुरु के ज्ञानोपदेश से मन हंस की भांति हो गया है। अत: सहज-सरल तथा विवेकी भाव से दुर्गुणों को छोड़कर सद्गुण-ज्ञान रूपी मोतियों को ही चुन-चुनकर खाता है। इसलिए मन पर काम किया जाए और मन का भोजन है सांस। जितनी गहरी सांस लेंगे और उसे अपनी चेतना से जोड़ेंगे उतना मन नियंत्रित होता जाएगा और संसार में मोतियों के परिणाम मिलेंगे।