दिल्ली की दोस्ती से उप्र में खतरे की घंटी

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CONGRESS LOGOलखनऊ : दरअसल जो फैक्टर 2009 के लोकसभा चुनाव के समय उप्र में कांग्रेस के पक्ष में गई थी, वही फैक्टर इस बार उसके लिए खतरे का सबब बनता दिख रहा है। कांग्रेसी इससे खुद वाकिफ हैं और शायद यही वजह है कि लोकसभा चुनाव की आहट के बीच उनकी हड़बड़ाहट किसी भी तरह यह साबित करने को लेकर है कि दिल्ली में सहयोगी दल होने के बावजूद उप्र में सपा-बसपा से उनके रिश्ते कतई तल्ख हैं, उप्र में उनसे कोई दोस्ती नहीं हैं, इन दोनो पार्टियों से उनका अस्तित्व कतई जुदा है। यही वजह रही कि शनिवार को कांग्रेस पूरे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की एक साल की सरकार की नाकामी के खिलाफ सड़क पर थी। वही समाजवादी पार्टी, जिसके समक्ष केंद्र सरकार बचाने को पिछले हफ्ते कांग्रेस नेतृत्व नतमस्तक था।

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2009 के लोकसभा चुनाव में उप्र में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता (21 सीटों पर जीत, जबकि सपा को उससे सिर्फ एक सीट ज्यादा मिली थी और बसपा तो तीसरे नम्बर पर चली गई थी।) के पीछे गैर भाजपाई वोटरों की यह मानसिकता थी कि जब सपा और बसपा केंद्र में कांग्रेस को ही समर्थन करते हैं तो वो लोग इन दलों को वोट देने के बजाय, सीधे कांग्रेस को ही वोट क्यों न करें? इस बार भी गैर भाजपाई वोटर इस बात से मुतमईन दिख रहा है कि कि भाजपा को रोकने के लिए सपा-बसपा केंद्र में कांग्रेस को ही समर्थन करेंगे ही तो हम लोग इन दलों को ही सीधे वोट क्यों न करें? सपा की तो उप्र सरकार भी है, बसपा भी जुझारू तेवर के साथ लड़ती दिखती है। कांग्रेस का तो कहीं पता भी नहीं चलता। ऐसे में अपने पिछले प्रदर्शन को दोहराने के लिए कांग्रेस के सामने यह चुनौती है कि वह राज्य के मतदाताओं को भरोसा दिलाए कि वह नूराकुश्ती नहीं कर रही है। इसी के मद्देनजर शनिवार को मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आक्रामक बयानबाजी करने वाले बेनी प्रसाद वर्मा को आगे किया गया। उनसे लखनऊ के प्रदर्शन में शामिल होने को कहा गया। अमूमन पार्टी कार्यक्रमों में कम हिस्सा लेने वाले बेनी प्रसाद वर्मा अपने समर्थकों के साथ धरने में शामिल हुए।

कांग्रेस नेतृत्व की ओर से उप्र के नेताओं को छूट भी दी गई कि सपा के खिलाफ सड़कों पर उतरने के लिए नेतृत्व से इजाजत की बाट जोहने की जरूरत नहीं। दिल्ली में यूपीए की लगातार तीसरी सरकार बनाने के लिए यूपी से ताकत मिलना जरूरी है। प्रदेश की सपा सरकार से हनीमून पीरियड एक साल बाद भी खत्म न किया तो मुश्किलें बढ़ेंगी। अगर सपा-बसपा को ज्यादा सीटें मिली तो उनका दबाव और बढ़ेगा। विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी द्वारा भरपूर मशक्कत करने के बावजूद नतीजों का निराशाजनक ही रहा। पश्चिम उप्र में रालोद का साथ लेना भी कारगर नहीं रहा। अमेठी व रायबरेली जैसे गढ़ में भी विरोध की सुगबुगाहट ने कांग्रेस नेतृत्व की नींद उड़ा रखी है।

कांग्रेस की चिंता यूपी को लेकर भाजपा की रणनीति से है। राजनाथ सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर यूपी में पार्टी की दशा सुधारने की हर कोशिश की जा रही है। सपा सरकार की मुस्लिम परस्त नीतियों से भाजपा ताकत मिलने की उम्मीदें संजोए है। यूपी में भाजपा बढ़ी तो सीधा नुकसान काग्रेस को ही झेलना होगा। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री का कहना है दिल्ली में सहयोगी दलों के भरोसे यूपी में नहीं बैठा जा सकता है। यहां भाजपा के साथ सपा व बसपा से बराबर का मुकाबला लेना होगा तब ही कांग्रेस की स्थिति को संभाले रखा जा सकेगा।

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