सीबीएस एकांउटस की भीड़ में खोया दिवाली पर मिट्टी की गुल्लक फोड़ने का मजा

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फर्रुखाबाद: जमाना बदल रहा है और एक पुरानी कहावत है कि हवा जिधर चले उस तरफ ही चलना चाहिए। बदलते जमाने की हवा कुछ ऐसी हावी हुई कि उसमें हिन्दुस्तानी संस्कृति और पुरानी परम्पराओं को पूरा बदल कर रख दिया। सोच बदली, लिवाज बदले, रहन सहन बदला, जिसने आपसी भावना और आपसी रिश्तों तक को बदल डाला। जमाने की अगर बात करें तो विदेशी फैशन हमारी संस्कृति पर पूरी तरह से हावी है कुछ परम्पराएं तो ऐसे गायब हो गयीं जैसे आकाश से गिद्ध। बात करें तकरीबन 50 वर्ष पूर्व की जब आदमी के अंदर बचत करने की भावना बचपन से ही बलवती हो जाती थी। वह किसी न किसी तरह से अपने धन को बचाने का प्रयास करता था और इसके लिए बच्चों को आदत डलवाई जाती थी मिट्टी की गुल्लक की। यह मिट्टी की गुल्लक देखने में तो महज 1 रुपये से भी कम की चीज होती थी। लेकिन उसके पीछे छिपी बच्चे की बचत करने की आदत उसे भविष्य में पैसे बचाने को कहीं न कहीं उत्साह दिखाई पड़ता था। और वह बचत देखने के लिए जब गुल्लक फोड़ी जाती थी तो उस बच्चे की आखों में चमक देखने लायक होती थी। लेकिन सीवीएस एकाउंटस की भीड़ में मिट्टी की गुल्लक फोड़ने का मजा खो चुका है।

हिन्दुस्तानी संस्कृति में मेले के आयोजनों का विशेष महत्व बताया गया है। जहां मेला लगता है वहां काफी दूर दराज से लोग मेले का आनंद लेने के लिए आते हैं। लेकिन जमाने के साथ मेले ने प्रदर्शनी व रंगारंग कार्यक्रमों का रूप धारण कर लिया। जहां पहले जमाने में बच्चे घरों से मेला देखने के लिए लालायित रहते थे। वहीं अब बच्चे प्रदर्शनी व रंगारंग कार्यक्रमों में ज्यादा आनंद लेना पसंद करते थे। वहीं मेले में बच्चों का खास प्रिय खिलौना व जरूरत की वस्तु मिट्टी की गुल्लक होती थी और वह मिट्टी की गुल्लक जिसमें बच्चे अपनी पूरे वर्ष की बचत को डालते थे। मां बाप भी बच्चों को बचत करने की सीख गुल्लक में पैसे डालकर देते थे। जिससे बच्चे गुल्लक भर जाने के बाद अपनी छोटी छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए विशेष आयोजनों पर गुल्लक फोड़ते थे। उस गुल्लक को फोड़ने में जो मन में प्रसन्नता के भाव होते थे वह भाव शायद आज के जमाने में एक व्यक्ति में लाखों रुपये मिलने के बाद भी नहीं होंगे।

लेकिन जमाना बदलने के साथ ही गुल्लक का भी स्वरूप बदल गया। गुल्लक का स्थान सीबीएस एकाउंटस ने ले लिया। पहले जमाने में जहां लोगों के 50 वर्ष होने तक भी बैंकों में खाते नहीं होते थे और वह लोग पूरे जीवन भर छोटी से बड़ी गुल्लकों फिर उसके बाद परिवार व बच्चों से छिपाकर जमीन में रुपये दबा देता था और इस प्रकार होती थी उसकी सारी जिंदगी की बचत। लेकिन आज के समय में कक्षा एक के बच्चे का सीबीएस एकाउंट है। जिससे उसमें बचत करने की प्रवृत्ति नहीं पनपती। शुरू से ही बच्चा अपने मां बाप के कदमों पर चलते हुए खर्चीले स्वभाव के होते हैं। उनमें छोटी बचत करने की प्रवृत्ति नहीं होती है। यही कारण है कि बच्चे शुरू से ही मां बाप पर निर्भर हो जाते हैं और अंत में जिसका नतीजा बेरोजगारी होता है। जबकि छोटी बचतें ही बड़े निवेश को जन्म देतीं हैं।

प्लास्टिक के सामने गायब हो गया मिट्टी का सोंधापन
कुम्हार जिसका नाम लेते ही आंखों के सामने मिट्टी के घड़े, गुल्लक, दीपावली के दिये व मिट्टी के तमाम प्रकार के वर्तन चाक की तरह घूमने लगते हैं। आधुनिकीकरण ने मिट्टी के इन वर्तनों के सोंधेपन को गुमनामी के गर्त में डुबा सा दिया है। घड़े की जगह फ्रिज, गुल्लक की जगह बैंक एकाउंट, कुल्हड़ की जगह फाइवर ने ले ली। दीपावली निकट आने से कुम्हारों ने अपने चाक की गति तेज कर दी और तैयार करने लगे दीपावली के लिए दिए और बच्चों के लिए फैन्शी गुल्लकें लेकिन महंगाई की मार और अधुनिकीकरण ने उनके धंधे को भी दे मारा। कम लागत में पूरे घर में रोशनी करने वाले चाइनीज दिये खरीदना लोग ज्यादा पसंद कर रहे हैं। दिया बनाने वाले कुम्हार बसंत ने बताया कि वह 30 वर्षों से इस व्यवसाय में है लेकिन बीते दस वर्षों से तो मिट्टी की जगह प्लास्टिक ने अपना स्थान ले लिया है। जिससे दीपावली फीकी हो गयी। दावत इत्यादि में लोग कुल्हड़ का प्रयोग पानी पीने के लिए करते थे वहीं उनके स्थान पर फाइवर के गिलास आ गये। जिससे कुम्हारों का आर्थिक स्तर भी काफी गिर गया है। जिससे कुम्हार अब मिट्टी के दिये व गुल्लकें बनाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। इसी तरह से अगर अधुनिकता मिट्टी पर हावी रही तो आने वाले समय में मिट्टी के दिये भी दीपावली पर भगवान गणेश व लक्ष्मी की पूजा तक को नसीब नहीं होंगे।