मौसेरे भाइयों ने चुराया जनता का लोकपाल, खूब हुई नूरा कुश्ती

Uncategorized

अन्ना हजारे के अतीत या वर्तमान का आरएसएस या भाजपा से क्या रिश्ता है यह आज महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह भी नहीं है कि लोकपाल के नाम पर अन्ना केवल कांग्रेस को ही दोषी क्यों ठहरा रहे हैं ? महत्वपूर्ण यह है कि आज यह सबके सामने आ गया कि जनता को भ्रष्टाचार से राहत देने के लिये प्रस्तावित लोकपाल कानून को किस प्रकार सारे मौसेरे भाइयों ने बहुत चालाकी से चुरा लिया। इसके लिये नूरा कुश्ती भी खूब लड़ी गयी। परंतु अब इतना तो अवश्य हो सकता है कि चुनाव से पूर्व टीम अन्ना राजनैतिक दलों पर इस बात के लिये दबाव बनायें की वह अपने “घोषणापत्र” में अपने लोकपाल बिल को प्रकाशित करें। जिससे चुनाव से पूर्व ही उसपर जनता के बीच चर्चा हो सके।

अन्ना का इतिहास व अतीत कुछ भी रहा हो। बौद्धिक स्तर पर उनकी सोच हो सकता है दक्षिणपंथी भी हो। परंतु लोकपाल को केवल इस लिये खारिज कर दिये जाने का भी कोई औचित्य नहीं है कि अन्ना के आंदोलन को आरएसएस का समर्थन है। चोर-चोर का शोर मचाने वाले से उसका पेशा कोई नहीं पूछता केवल चोर का पीछा करता है।

अन्ना के आंदोलन की शुरुआती दौर से ही जो छीछालेदर की गयी उसके लिये किसी एक राजनैतिक दल को जिम्मेदार ठहरान उचित नहीं होगा। इसके लिये सभी दल बराबर से भागीदार हैं। आखिर हों भी क्यों न, उन्हीं के हितों पर तो सबसे सीधा प्रहार होने जा रहा है। भ्रष्टाचार चाहे चपरासी करे या आईएएस उसका हिस्सा तो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से राजनैतिज्ञों के पास ही जाता है। अब इसे टीम अन्ना की नादानी कहें या लाचारी कि वह चोरों की जमात से दरोगा की नियुक्ति का प्रस्ताव पारित कराने की जुगत में लगे थे।

हालांकि अब इसमें ज्यादा शक की गुंजाइश नहीं रह गयी है कि अन्ना के आंदोलन को पर्दे के पीछे से आरएसएस के कैडर की सपोर्ट थी। परंतु अन्ना को जिस रूप में प्रयोग करने का आरएसएस का उद्देश्य था, उसमें वह विफल रही या टीम अन्ना ने आरएसएस की उम्मीदों पर बीच में ही पानी फेर दिया। हो सकता है कि इसकी वजह कांग्रेस द्वारा टीम अन्ना के भगवा कनेक्शन की पोल खोल देने के बाद उनके रक्षात्मक रवैये के कारण हुआ हो। परंतु सच यही है। दर असल कांग्रेस तो लोकपाल के विरोध में थी ही, आरएसएस या उसकी राजनैतिक जमात भाजपा का भी उद्देश्य लोकपाल लाना नहीं था। वह तो केवल अन्ना के माध्यम से भ्रष्टाचार के मुद्दे को हवा देना चाहती थी। जाहिर है कि भ्रष्टाचार सत्तारूढ़ दल पर ही वार करता है, और इत्तिफाक से भाजपा दिल्ली व लखनऊ दोनों जगहों पर सत्ता से बाहर है।

अन्ना और उनकी टीम भले ही इस समय अपने जख्म सहला रही हो, और राजनैतिक दल भले ही घड़ियाली आंसुओं के पीछे मंद-मंद मुस्का रहे हों, परंतु भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुई सुगबुगाहट से यह मुद्दा आम आदमी में अपनी जगह बना गया है। अन्ना का आंदोलन बजाहिर असफल हो गया हो, परंतु उसके निहितार्थ प्रत्यक्ष से आगे और भी हैं। जरूरत ईमानदारी से इसको आगे लेजाने की है।

टीम अन्ना को नये सिरे से अपने आंदोलन की राह तय करनी होगी। अपने ऊपर लगे दक्षिण पंथी राजनैतिक झुकाव के आरोपों को अपने आचरण से धोकर पूरी ईमानदारी पारदर्शिता से नयी कोशिश शुरू करनी होगी। टीम अन्ना को दूसरी पंक्ति भी तैयार करनी होगी, जिसकी अपनी विश्वसनीयता भी हो।

सवाल यह है कि “व्हिप” की बेड़ियों से जकड़े सांसदों से स्वतंत्र चिंतन की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। परंतु इतना तो अवश्य हो सकता है कि चुनाव से पूर्व टीम अन्ना राजनैतिक दलों पर इस बात के लिये दबाव बनाये की वह अपने “घोषणापत्रों” में अपने-अपने लोकपाल बिल को प्रकाशित करें। जिससे चुनाव से पूर्व ही उसपर जनता के बीच चर्चा हो सके, और जनता अपनी पसंद के लोकपाल बिल वाली पार्टी को वोट दे सके। फिर जो भी पार्टी सत्ता में आयेगी उसके सामने इससे पीछे हटने के लिये ज्यादा जगह नहीं होगी।