लखनऊ : दृश्य एक- मथुरा के एसपी प्रदीप यादव का नोयडा भ्रमण। दिन भर ‘व्यक्तिगत’ काम निपटाने के बाद थोड़ा रिलेक्स होने के लिये देर शाम होटल के बार में पहुंचते हैं। करीब पौन घंटा बिताने के बाद एसपी साहब अपनी गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ जाते हैं। चंद पलो में ही हूटर बजाती गाड़ी हवा से बात करने लगी। दौड़ने लगती है। उनके साथ पंजाब पुलिस का एक अधिकारी भी था। कुछ ही देर में अनियंत्रित वाहन ने एक राहगीर को कुचल दिया। मौके पर ही उसकी मौत हो गई। वायरलेस पर मैसेज गूंजा। पुलिस ने एसपी साहब की कार रोक ली। साहब गाड़ी में बैठे थे। उन्होंने खिड़की का शीशा नीचे कर अपना परिचय दिया। ‘साहब’ का परिचय सुनते ही पुलिस ने हाथ खड़े कर दिये। एक अज्ञात वाहन चालक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर मामला रफा-दफा कर दिया जाता है।
दृश्य दो- प्रदेश की कानून व्यवस्था सुधरने का नाम नहीं ले रही। इसी के चलते डीजी एसी शर्मा को हटा कर नागर साहब को डीजी बना दिया गया। नये डीजी ने अधीनस्थों को तलब किया। सभी मुख्यालय के मीटिंग हाल में इकट्ठा हो गये। डीजी साहब भी समय से पहुंच गये, लेकिन उनका मन शायद कहीं और भटक रहा था। मीटिंग हॉल में लगे एलसीडी पर आईपीएल का मैच चल रहा था। साहब अधीनस्थों से बिगड़ती कानून व्यवस्था के सुधार पर राय मांगी। लोग सुझाव देने लगे , लेकिन ‘साहब’ की नजरें मैच पर टिकी थी जिस कारण मीटिंग की गंभीरता पर भी फर्क पड़ रहा था। तभी वह जोरदार आवाज में बोले, ‘ओह………कैच छूट गया।’ कुछ ही देर में उनके मातहत भी उन्हीं के रंग में रंगकर मैच का आनंद उठाने लगे। बस, मीटिंग निपट गई।
दृश्य तीन- सचिवालय के मीडिया सेंटर में नियमित प्रेस ब्रीफिंग। गृह सचिव आरएन उपाध्याय और आईजी कानून व्यवस्था राजकुमार विश्वकर्मा पत्रकारों के सवालों का जबाव दे रहे थे। एक पत्रकार का सवाल- ‘सोनभद्र में एक बाप द्वारा अपने तीन छोटे बच्चों की हत्या और उसके बाद स्वयं आत्महत्या का कारण क्या है?’ आईजी विश्वकर्मा कुछ बोलते इसके पहले ही गृह सचिव का जोरदार ठहाका गूंजा और वह दार्शनिक अंदाज में बोले- ‘महात्मा बुद्ध ने कहा है, जो जन्मा है, उसकी मौत निश्चित है। अब मौत का क्या कारण बताया जाये।’ इस ठहाके को अखिलेश सरकार ने गंभीरता से लिया। दो घंटे के अन्दर ही गृह सचिव को पद से हटा दिया गया।
यह तीन दृश्य उत्तर प्रदेश की नौकरशाही और पुलिस प्रशासन का हाल बयां करने के लिये काफी हैं। इस तरह की दर्जनों घटनाएं उत्तर प्रदेश में नित्य हो रही हैं। कुछ के मीडिया में आने पर उन पर कार्रवाई हो जाती है, लेकिन तमाम वारदातों पर कोई ध्यान नही देता। नौकरशाहों की लालफीताशाही से जहां जनता परेशान है, सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी इससे नहीं बच पाये। उद्योगपतियों के सम्मेलन में जब उद्यमियों ने नौकरशाही की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाया तो अखिलेश को भी अपनी आप बीती याद आ गई। वे बोले, मैंने एक काम करने का आदेश दिया था। विभाग के सचिव ने पॉच महीने तक काम लटकाये रखा। एक दिन जब मैंने थोड़ी सख्ती से कहा कि कल तक काम हो जाये तो विभागीय सचिव ने तीन दिन बाद मेरे सामने दो पेज की निगेटिव रिपोर्ट रख दी और बोले, ‘यह काम होना मुश्किल है।’
मैंने थोड़ा नाराज होते हुए कहा, ‘दो पेज की निगेटिव टिप्पणी में आपने पांच महीने लगा दिये, तो काम होने में तो पांच साल लग जायेगें।’ मैंने दूसरे सचिव को बुलाकर कहा, ‘यह काम होना है। उस सचिव ने फाइल ली और दो लाइन की सकारात्मक टिप्पणी लिखकर अनुमोदन हेतु फाइल अगले ही दिन मुझे भेज दी।’ इसी के साथ अखिलेश यादव सार्वजनिक रूप से बोले, ‘सचिवालय में बाबूराज चलता है।’
पुलिस के बड़े अधिकारियों की बात की जाये तो वह अपराध की जमीनी हकीकत समझने की कोशिश ही नहीं करते। कई अधिकारी तो यही मुगालता पाले हुए हैं कि ‘हाईफाई’ तरीके से वह माउस घुमा कर सब कुछ ठीक कर सकते हैं। एक एडीजी अपने मातहतों को थोक में कानून व्यवस्था सुधारने के लिये आदेशात्मक एसएमएस भेजकर खूब नाम कमा रहे हैं, जबकि इन एसएमएस को पढ़ने का समय ही ज्यादातर पुलिस वालों को नहीं मिलता है। वैसे भी जिले के पुलिसकर्मी तो अपने कप्तान के प्रति जबाबदेह होते हैं, तो ऐसे एसएमएस के लिये क्यों माथापच्ची करे। आज पुलिस अपना काम ईमानदारी से नहीं करती। कुर्सी बचाने को वह सत्तारूढ़ दल के नेताओ की परिक्रमा करती है। सत्ताधारी दल का झंडा लगी गाड़ी में उसकी झांकने की हिम्मत नहीं रहती है, चेक करना तो दूर की बात है। पुलिस की इस कमजोरी का अपराधी खूब फायदा उठाते हैं।
हाल की ही घटना है। लखनऊ में एक बिल्डर का कत्ल हो गया। हत्यारे उसका शव गाड़ी में डालकर 250 किलोमीटर दूर फतेहपुर में फेंक आये, लेकिन पुलिस को इस बात की भनक तक नहीं लगी। हत्यारे जब गिरफ्त में आये तो उन्होंने कबूला की वह सपा का झंडा और हूटर लगी गाड़ी से शव लेकर गये थे। रास्ते में एक-दो जगह चैकिंग में फंसे तो गाड़ी का हूटर बजा दिया। यह प्रयोग सफल रहा। पुलिस ने ही रास्ता क्लीयर करा दिया। आज की तारीख में उत्तर प्रदेश में सपा का झंडा लगी गाड़ियां हजारों की संख्या में घूम रही हैं। झंडे की आड़ में अराजक तत्व बचकर निकल जाते हैं। अधिसंख्य पुलिस वाले नेताओं, बाहुबलियों और हनक-धमक वालों के साथ ‘दोस्ताना’ व्यवहार करके चलते हैं। यूपी पुलिस जनता के दुख दर्द के प्रति तो लापरवाह बनी रहती, लेकिन उसके सिपाही ही नहीं अधिकारी भी अपने हक के लिये आपस में सिर फुटव्वल करते रहते हैं।
बात कुछ दिन पहले की है। एक डीजी साहब को पुलिस मुखिया की नई-नई कुर्सी मिली। सामान्य शिष्टाचारवश वह लोक निर्माण मंत्री शिवपाल यादव से मिलने गये। शिवपाल ने कहा कि हमारी सरकार के लिये कानून व्यवस्था बेहद अहम मुद्दा है, आपको इस ओर पूरा ध्यान देना होगा। डीजी ने जी सर, कहकर बिना समय गवांए अपना अलग तान छेड़ दिया। बोले, ‘सर, मैं बुलंदशहर का रहने वाला हॅू। वहां आंवला बहुत अच्छा मिलता है। अगली बार आऊंगा तो लेता आऊंगा। गर्मी में आंवले का प्रयोग फायदेमंद रहता है। शिवपाल उनका मुंह देखते रह गये। इन ‘बड़े साहब’ के बारे में कहा जाता है कि बात कहीं की होती है और वे शुरू कहीं की कर देते हैं।
हाल में ही मथुरा से हटाये गये एक एसपी की बीत की जाये तो उनके सपा से अच्छे रिश्ते थे। सपा के प्रोफेसर साहब काफी सोच-समझकर उन्हें पंजाब से डेपुटेशन पर यूपी लाये थे। उम्मीद थी कि बिरादरी के होने के कारण सरकार के वफादार रहेंगे, लेकिन उनका नाम ‘काम’ के बजाय सरकारी लूट-खसोट और प्रेम प्रसंग के कारण ज्यादा सुर्खियों में रहा। पानी जब सिर से ऊपर हो गया तो उन्हें बमुश्किल एसपी के पद से विदा किया गया।
एसएसपी यशस्वी यादव को महाराष्ट्र से लाकर कानपुर नगर का एसएसपी बनाया गया। जिले में क्राइम ग्राफ लगातार बढ़ रहा है, लेकिन एसएसपी साहब क्राइम पर रोक लगाने की बजाये अपने आप को कामयाब दिखाने के लिये तरह-तरह के ‘गुडवर्क’ करते रहे। फर्जी तरीके से बेगुनाहों को फंसा कर केस खोले जा रहे है। कभी ‘सिम’ पकड़वाते है तो कभी ‘कालगर्ल्स’ बरामद कराते हैं। मीडिया के सामने अपनी ही पीठ थपथपाने वाले ‘यशस्वी’ पुलिस अधिकारी की पत्नी भी कानपुर विकास प्राधिकरण (केडीए) में तैनात हैं। कानपुर में पुलिस और केडीए अवैध निर्माण के नाम पर खूब धन उगाही कर रहे हैं। ‘सीलिंग’ करा कर डीलिंग का धंधा पूरे शबाब पर है।
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प्रदेश में कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के बजाये पुलिस के बड़े अफसरों में एक दूसरे को नीचा दिखाने और वर्चस्व स्थापित करने को लेकर ज्यादा टकराव देखा जा रहा है। एक समय लखनऊ में एसएसपी के पद पर तैनात रहे बीबी बक्शी की अपने डीआईजी सुलखान सिंह से नहीं पटी। वजह थी कि डीआईजी उनके फैसलों पर लगाम लगा देते थे। दोनों के बीच तनाव इतना बढ़ा की डीआईजी ने एसएसपी को प्रतिकूल प्रविष्टि दे दी, लेकिन ‘ऊपर’ से प्रतिकूल प्रविष्टि खारिज कर दी गई। मौजूदा सरकार में कानपुर नगर में एक डीआईजी अमिताभ यश को एसएसपी के पद पर तैनात कर दिया गया। वहां तैनात डीआईजी रेंज सुनील गुप्ता उनसे सीनियर थे, अमिताभ द्वारा की जा रही थानेदारों की तैनाती गुप्ता को रास नहीं आ रही थी। एसएसपी जिस थानेदार को तैनात करते डीआईजी साहब पुलिस मुख्यालय को पत्र लिखकर उसकी खामियां गिना दें। अंततः एसएसपी और डीआईजी दोनों को कानपुर से हटा दिया गया।
अखिलेश के सत्ता संभालते ही लखनऊ में डीआईजी आशुतोष पांडेय को लखनऊ का एसएसपी बनाया गया। तब एडीजी लॉ एंड आर्डर जगमोहन यादव की लखनऊ के एसएसपी पांडेय से खूब ठनी। थानेदारों की तैनाती में मनमानी भी एक वजह थी। इसी बीच पांडेय का आईजी स्तर पर प्रोमेशन हो गया लेकिन उन्होंने लखनऊ का एसएसपी बने रहना ही ज्यादा बेहतर समझा। जगमोहन यादव और आशुतोष पांडेय की लड़ाई का अंत यह रहा कि पहले तो आशुतोष को उनके पद से चलता कर दिया गया, उसके कुछ महीने बाद जगमोहन यादव से भी एडीजी लॉ एंड आर्डर की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया। वैसे जगमोहन की विदाई का कारण तत्कालीन डीजीपी एसी शर्मा थे। काम न करने देने और मातहतों की तैनाती में अड़ंगेबाजी इसकी खास वजह थी। दोनों के बीच खूब गरमा-गरम बहस हुई। आफिस में ही दोनों आमने सामने आ गए। अंततः एडीजी के बाद में डीजीपी शर्मा को भी अपनी कुर्सी गंवाना पड़ गई। डीजीपी शर्मा के बारे में कहा जाता था कि वह आफिस में ही ‘डीलिंग’ करते थे।
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बिल्कुल ताजा मामला प्रेम की नगरी आगरा और रासलीला के क्षेत्र मथुरा का है। मथुरा के एसपी का दिल एक महिला दरोगा पर आ गया। एसपी साहब डीआईजी आगरा की मातहती में थे। डीआईजी पहले से ही उसी महिला दरोगा पर फिदा थे। ‘प्रेमिका’ को लेकर दोनेां में खूब ठनी। ऊपर तक चर्चा हुई। दोनों ‘दंबंग’ थे। ऊपर से डांट-डपट हुई लेकिन दोनों को नहीं सुधरना था सो नहीं सुधरे। पानी जब ऊपर तक आ गया तो ‘मजबूरी’ में दोनों को हटाना पड़ा। ‘मजबूरी’ यह थी कि दोनों ने सत्ता शिखर के दो बड़ों का अलग-अलग दामन थाम रखा था।
राजनेता पुलिस का मनोबल किस तरह से तोड़ते हैं इसकी बानगी कुछ दिनों पूर्व आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद खालिद की पुलिस कस्टडी में हुई मौत के बाद हुई सियासत में देखने को मिली। सरकार ने अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिये कई पुलिस वालों के खिलाफ अनाप-शनाप मुकदमें ठोंक दिये। सीरियल बलास्ट के आरोपी खालिद की मौत के बाद मचे बवाल को शांत करने के लिये एक मुकदमा रिटायर्ड डीजीपी विक्रम सिंह के खिलाफ भी दर्ज कर दिया गया, जो खालिद की मौत के समय रूड़की के रामकृष्ण ट्रस्ट मिशन में व्याख्यान दे रहे थे। अपने खिलाफ मुकदमा दर्ज होने की बात सुनकर वह गुस्सा हो गये और उन्होंने यहां तक कह दिया कि ”यह सब सरकार के पैंतरे हैं। खालिद की गिरफ्तारी मेरे ही कार्यकाल में हुई थी, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वह आतंकवादी था और रहेगा। अब उसके परिवार को अखिलेश सरकार छह लाख रूपये की मदद देकर देशवासियों को क्या संदेश देना चाहती है।” उन्होंने पुलिस वालों का मनोबल बढ़ाते हुए कहा कि ऐसे मुकदमों से पुलिस वालों को परेशान नहीं होना चाहिए। आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई में कतई न घबराएं। ऐसे दस मुकदमें हो जाये तब भी देश के लिये काम करें। पूर्व डीजीपी केएल गुप्ता ने भी इसे वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बताया और कहा कि सरकार के इस फैसले से पुलिस वाले किसी को भी पकड़ने से डरेंगे। वहीं अपने समय के एक और तेजतर्रार डीजीपी रहे प्रकाश सिंह का कहना था यह तुष्टीकरण की पराकाष्ठा है। ऐसे केस पुलिस वालों के खिलाफ दर्ज होते रह तो कभी भी पुलिस में विद्रोह हो सकता है।
एक डीजी बताते हैं कि एडीजी कानून व्यवस्था ने एक जिले के कप्तान को निर्देश दिया कि वे पशुओं की तस्करी करने वालों की धरपकड़ करें। एसपी ने पशु तस्करों के खिलाफ अभियान चलाया तो सत्ताधारी दल के एक नेता फंदे में आ गये। नेताजी ने पकड़े गये पशु तस्करों को छोड़ने के लिए एसपी को घूस देने की पेशकश की थी। एडीजी ने मीडिया में इस मामले को उछाल कर खूब वाहवाही बटोरी, लेकिन जब संबंधित एसपी को सरकार ने हटाने का निर्णय लिया तो एडीजी साहब, एसपी की मदद के लिए सामने नहीं आये। ऐेसे में कौन मातहत अपने अफसर की बात मानेगा।
पूर्व डीजीपी श्रीराम अरूण का कहना है- आज आईपीएस अफसर मलाईदार पोस्टिंग के लिए सत्ताधारी दल के लोगों की गणेश परिक्रमा करते हैं ओर जब कमाऊ जिला मिल जाता है तो कुर्सी बचाने के लिए जायज- नाजायज सब करते हैं। नतीजतन अपराध बढ़ते जाते हैं। अफसर यह तय कर लें कि वह गलत काम नहीं करेंगे तो उनसे कोई भी नेता गलत नहीं करा सकता। पूर्व डीजी केके बंसल के मुताबिक आज के अफसर नैतिकता भूल गये हैं। सही निर्णय लें नहीं तो उनके अधीनस्थ भी डरते रहेंगे। अफसर जैसा आचरण करेंगे नीचे वाले उसी का अनुसरण करेंगे।
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लेखक अजय कुमार यूपी के वरिष्ठ पत्रकार हैं. लखनऊ में पदस्थ हैं. चौथी दुनिया और प्रभा साक्षी से संबद्ध हैं. अजय कुमार ने करियर की शुरुआत ‘आज’ अखबार से की थी. बाद में काफी समय तक स्वतंत्र भारत के हिस्से बने रहे. फिर माया मैग्जीन से जुड़ गए. वे माया मैग्जीन के लंबे समय तक यूपी ब्यूरो चीफ हुआ करते थे. माया मैग्जीन के दिनों में अपने बेबाक विश्लेषण और रिपोर्टिंग के कारण अजय कुमार की चर्चा व पहचान पूरे देश में हो गई. अजय कुमार से संपर्क ajaimayanews@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.