प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की उत्ताल तरंगों पर सवार केजरीवाल की नवीन पार्टी ने राजनीति में प्रवेश के साथ कई सवाल खड़े कर दिए हैं। वैसे भी अल्प मतदान और वोटों के बटवारे ने राजनैतिक पार्टियों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गरिमा मर्यादा और उपादेयता पर लंबी बहस की स्थितियां पैदा कर दी हैं।
स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग कर देने की महात्मागांधी की सलाह को अनदेखा कर दें, तब फिर कांग्रेस पार्टी को देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी कहा जाएगा। देश और प्रदेश में यह पार्टी सर्वाधिक समय सत्ता में रही। वामपंथियों ने संघर्ष और आंदोलन की छोटी अवधि को छोड़कर अपने आपको देश की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं बना पाया। समाज वादियों का भी जुड़ने बनने से पहिले ही टूटने और बिखरने का पुराना इतिहास है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा संचालित निर्देशित, जनसंघ से लेकर भाजपा तक आते आते देश की सबसे बड़ी दूसरी पार्टी का सेहरा भाजपा को लगभग स्थायी रूप से मिल चुका है। वैसे चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनैतिक पार्टियों की संख्या डेढ़ हजार के आसपास है।
देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को कुल मतदाताओं का लगभग पन्द्रह प्रतिशत और भाजपा को लगभग दस प्रतिशत मत राष्ट्रीय स्तर पर मिलता है। शेष अन्य पार्टियों की स्थिति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है। सभी पार्टियां बूथ स्तर तक अपना संगठन मजबूत करने का दावा करती हैं। कुल मतदाताओं की बात न भी करें। तब भी आजादी के बाद से आज तक किसी भी सरकार का गठन कुल मतदान के 50 प्रतिशत या उससे अधिक के आधार पर नहीं हुआ। नतीजतन केन्द्र और प्रांत में अल्पमत की और अब जोड़ तोड़ की सरकारों का गठन हो रहा है। ऐसी स्थिति में अरविंद केजरीवाल की नवगठित पार्टी का भविष्य आशंकाओं और खतरों से मुक्त नहीं है।
लगभग सभी राजनैतिक पार्टियां बातें चाहें जैसी और जितनी भी करें सब की सब व्यक्तिगत और समूहगत महत्वाकांक्षाओं के कंधे पर सवार होकर मैदान में खड़ी हैं। इनमें से किसी पार्टी या किसी भी नेता में यह कहने का साहस नहीं है कि आप हमें मतदान करें या न करें। परन्तु निष्पक्ष और निर्भीक होकर मतदान अवश्य करें। ‘राइट टू रिकाल’ के प्रति अपनी प्रतिपद्धता प्रदर्शित करने वाली केजरीवाल की नयी पार्टी सहमति या असहमति की स्थिति में भी जन सामान्य से आम जादमी के जब निष्पक्ष और निर्भीक होकर मतदान करने के संकल्प के प्रति जागरूक करेगी। तभी वह पार्टियों के झुंड के बीच अपनी अलग पहिचान बना पायेगी।
अन्ना हजारे, केजरीवाल जैसे लोगों के आंदोलन में एक बात साफ हो गई है। देश की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सहित सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार वह लोग हैं। जो अपने अपने कारणों से मतदान नहीं करते। हमारी सभी राजनैतिक पार्टियों और लोकतंत्र का सच यह है कि मतदान न करने वालों का प्रतिशत मतदान करने वालों से कम नहीं है। कहीं कहीं और कभी कभी ज्यादा तक हो जाता है। अरविंद केजरीवाल की पार्टी को इस गतिज जड़ता को तोड़ना होगा। लोकतंत्र की इस गतिज जड़ता को आपने तोड़ने का प्रयास भी प्रारंभ किया। तब फिर नए युग की शुरूआत हो सकती है। अन्यथा आप भी देश के बड़बोले सूचना और प्रसारण मंत्री के अनुसार पार्टियों के झुंड में खो जायेंगे। वर्तमान परिस्थितियों में देश का जनमानस ऐसा नहीं चाहता है।
लोकबंधु राज नारायण कहा करते थे कि नेता दो तरह के होते हैं। एक टाइपराइटर से पैदा होते हैं। ऊपर वाला टाइप कराकर किसी को भी राष्ट्रीय या प्रांतीय पदाधिकारी बना देता है। लेकिन जन नेता जन संघर्ष करते हुए आम जनता से आते हैं। संप्रति हाई कमानों के चहेते ही बड़े पदाधिकारी हो रहे हैं। जन नेता नहीं। विश्वास किया जाना चाहिए अरविंद केजरीवाल की नई पार्टी ग्राम स्तर से राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारियों को जन संघर्ष के बल पर आगे लाने का काम करेगी। इसके साथ ही साथ जन सामान्य में स्वतंत्र रूप से निष्पक्ष और निर्भीक होकर अनिवार्य मतदान का संदेश और संकल्प प्रसारित करेगी।
कितना सुधार कितना बदलाव
प्रदेश में पुरानी सरकार जाने और नई सरकार आने को लेकर पन्द्रह दिसम्बर को पूरे नौ महीने हो जायेंगे। विदाई का मातम और आगमन के जश्न के बाद दोनो पक्षों के रण बांकुरे मिशन 2014 के लिए अपने अपने नेता को देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर पहुंचाने और लाल किले पर तिरंगा फहराने की महत्वाकांक्षी योजना को पूरा करने में लग गए हैं। एक दूसरे को कोसा जा रहा है। अपनी पीठ थपथपाई जा रही है। दोनो ही देश की सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार देश की सबसे बड़ी पार्टी और उसके बाद वाली पार्टी को भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के आधार पर कोसने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते। परन्तु पता नहीं अब जो रहस्य पूरे देश को पता है। उससे अनजान बने यह दोनो सूरमा भोपाली एक साथ एक स्वर में केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी के साथ जुगलबंदी कर रहे हैं।
इन दोनो पार्टियों का व्यापक जनाधार एक दो अपवादों को छोड़कर केवल और केवल अस्सी लोकसभा सीटों वाले प्रदेश तक में ही सीमित है। दोनो को इसी में अन्य पार्टियों के साथ हिस्सेदारी करनी है। हम कम ज्यादा की बात नहीं करते। इतनी सीटों में ज्यादा से ज्यादा सीटें प्राप्त करके कौन इतने बड़े देश का प्रधानमंत्री बन जाएगा। जोड़तोड़ और परिस्थितियों के बल पर बन भी गया। तब फिर इनमें से किसकी स्थिति चौधरी चरण सिंह, वी पी सिंह, चन्द्रशेखर, इन्द्र कुमार गुजराल, देवगौड़ा से बेहतर होगी। इसकी क्या गारंटी है। गठबंधन सरकारों का नजारा देश और प्रदेश में सबके सामने है। भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता के भय से लोगों को डराने के स्थान पर जनसहयोग के बल पर इनसे लड़ने का आव्हान करिए संघर्ष करिए। जातीयता और कुनवा परस्ती के चक्रव्यूह से निकलने की हिम्मत दिखाइये। जनता आपको हाथों हाथ लेगी। आजादी के बाद देश की जनता के अच्छे फैसलों को स्वार्थी और महत्वाकांक्षियों ने ही बिगाड़ा है। देश प्रदेश के अच्छे भविष्य के लिए आप ऐसा न करें। अन्यथा चुनाव होते रहेंगे। लेकिन न कोई सुधार होगा और न कोई बदलाव।
जिले में कितना सुधार – कितना बदलाव
हाथी वाले गए सायकिल वाले आये- इन्हें भी अगले माह आए और गए पूरे नौ महीने हो जायेंगे। जश्न मन रहे हैं। गलतियां कमियां ढूंढीं जा रहीं हैं। परन्तु सुधार और बदलाव की प्रसव पीड़ा के लक्षण कहीं नहीं दिखाई दे रहे। पेड और प्रायोजित खबरों का इन्द्रधनुष रोज सुबह घरों की कुंडी न खटखटाए। तब फिर जन साधारण यह भी न जान पाए कि हो क्या रहा है।
शुरूआत बड़ी धमाकेदार थी। गुंड़ों को बख्शा नहीं जाएगा। अधिकारियों को सुधरना होगा। होर्डिंगें नहीं लगेंगी। अनाधिकृत लोग अपने वाहनों पर पार्टी झंडा नहीं लगा पायेंगे। परन्तु पैलगी, हाजिरी, विरादरी, नजराने, शुकराने, भेंट, गिफ्ट, सेवा, सुविधा शुल्क आदि आदि ने न कुछ सुधरने दिया। न कोई बदलाव ही दिखा। वरिष्ठता लोकलाज के चलते जो कार्य करने की हिम्मत बड़े नेता नहीं दिखा पाए। वह कार्य उनके चमचे समर्थक और पुत्रगण, परिवारीगण करने लगे। आंधी के आम हैं। लूट सके सो लूट। मीडिया की हिस्सेदारी से नहीं पड़ेगी फूट। फिर पछताए होत क्या जब प्राण जायेंगे छूट। जो विरोध करे ना नुकर करे। करने दो। वह साला तो सबसे बड़ा चोर है। परवाह मत करो। इतिहास गवाह है। जब लूटोगे तभी बड़ा ओहदा या जिम्मेदारी मिलेगी।
हाकिमों का हाल भी नेताओं से आलग नहीं है। मुख्यालय, पुलिस प्रशासन, विकास भवन सहित सारे कार्यालय शिक्षा स्वास्थ्य सहित सब जगह घूम आइए। हर जगह एक ही गाना सुनाई देगा। बड़े साहब बहुत सख्त हैं। सख्त हैं तब फिर रिश्वत सुविधा शुल्क क्यों बढ़ रहा है। बेबकूफ हो। सख्त हैं तभी तो सुविधा शुल्क बढ़ रहा है। सुधार और बदलाव। कभी नहीं हुआ तब फिर अब क्या होगा। जन सेवकों को यह जरा भी स्वीकार नहीं है कि कोई चरित्रवान समझे। अब सुधार और बदलाव नहीं है। तब फिर जनता का भाग्य
भाजपा- आ रही है- जा रही है!
क्षमा करें हम छिदान्वेषी नहीं हैं। लेकिन जब दाल कम हो और नमक ज्यादा नहीं बहुत ज्यादा हो। तब फिर हम क्या करें। अडवाणी की बात करें। तब लगता है कि लौह पुरुष की दुनिया बदलने वाली है। पार्टी कांग्रेस को धकिया कर आने वाली है। गड़करी की बात करें। तब लगता है कि अब गई तब गई। ऊपर से राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हां और अब शत्रुघन सिन्हा। पता नहीं किस जनम का बैर है। यूपी वालों और विहारियों का। संघ के दुलारे प्यारे एक महाराष्ट्रियन राष्ट्रीय अध्यक्ष को बर्दाश्त नहीं कर रहे। एक महाराष्ट्रियन ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को मारा। एक ने भाजपा को मर्मांतिक पीड़ा पहुंचाई। देश समाज रानीति में महाराष्ट्र के महत्वपूर्ण योगदान और परम्पराओं को कलंकित कर दिया।
गुजरात के मोदी की बात करें। तब लगता है कि हिन्दुत्व के रथ पर सवार होकर नए भावी प्रधानमंत्री के रूप में भाजपा आ रही है। वहीं कर्नाटक के येदुरप्पा की बात आए। लगता है कि भाजपा जा रही है। पार्टी विद द डिफरेंश नहीं रही। पार्टी रही ही नहीं। कोई किसी की सुनता ही नहीं। कोई पार्टी का शुभचिंतक लगता है रहा ही नहीं। सब किसी के समर्थक या विरोधी हैं। जिलों जिलों प्रदेशों से लेकर केन्द्र तक तबेले में लतियाब ही लतियाब हैं। अब नियंत्रक निर्देशक संघ ने इलाहाबाद कुंभ से मंदिर का राग पुनः छेड़ने का अलाप प्रारंभ कर दिया है। कल्याण की इंट्री बड़े बेआवरू हो कर तेरे कूंचे में हम आए की तर्ज पर हो ही रही है। यहां जिले तक में सबकी सांसें थम गई हैं। चुनाव आते आते देखते रहिए। वचन भंग के दोषियों का भला बहुत मुश्किल लगता है।
(भाजपा) विनोदराय बनाम आर.पी. सिंह (कांग्रेस)
और अंत में- हम कहें वही सही- तुम कहो वह सब गलत
कैग रिपोर्ट को लेकर भाजपा और कांग्रेस में घमासान आने वाले दिनों में वोफोर्स जैसी तेजी पकड़ेगा। नतीजा भी वोफोर्स जैसा ही निकलेगा। इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगा।
इस प्रकरण में प्रारंभिक बढ़त के बाद अब कांग्रेस के मुकाबले भाजपा बैकफुट पर हो गई। दोनो ओर से आरोपों प्रत्यारोपों, तर्कों, कुतर्कों की फुलझड़ियों, अनार और पटाखे छूट रहे हैं। कोई किसी की सुन ही नहीं रहा है। सर्वोच्च संसद असहाय लाचार है। हम कोई काम ही नहीं होने देंगे। सवाल आने वाले चुनाव में वोटों की सैटिंग और विरोधी की पटकनी देने का है। नरेश अग्रवाल, देवेन्द्र यादव, अन्ना शुक्ला, धर्मराज पटेल जैसे कुछ लोग तो बैन्ड बाजे वाले बन कर रह गए। कल बसपा की बजाते थे। हाथी पर सवार थे। आज सपा में हैं। सायकिल पर सवार हैं। कल कहां होंगे। कोई नहीं जानता। परन्तु सही केवल और केवल यही लोग हैं। कल भी थे आज भी हैं और कल भी होंगे। रह गए बेचारे भाजपाई अटल बिहारी वाजपेयी के बाद इस बार सपा से लखनऊ में उतारे गए अशोक बाजपेयी। बेचारे यही गाना गा रहे हैं कि सपा में ब्राह्मणों का बहुत सम्मान है। देखा न अन्ना शुक्ला कैसे भी हों। हैं तो ब्राह्मण ही। अब धरती पुत्र मुलायम सिंह उनका सम्मान कर रहे हैं। तब फिर विरोधियों को पेट में मरोड़ क्यों होती है। अब अन्ना शुक्ला अपराधी हैं माफिया हैं अवसर वादी हैं दल बदलू हैं। क्या हुआ हैं तो ब्राह्मण ही। रावण भी तो ब्राह्मण था। उसकी कोई पूजा नहीं करता। परन्तु हमारे नेता जी तो सभी ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं। सपा में रावण वंशी और चाणक्य वंशी दोनो तरह के ब्राह्मण हैं। हम किसी से कम नहीं हैं। देश में लोकतंत्र है। हमारे नेता जी समदर्शी हैं। आप चाहें जिसे चुन लो। हम आपको रोक तो नहीं रहे हैं।
चलते चलते – सपा की प्रतीक संस्कृति अब जिले जिले में फैलेगी!
कहते हैं कि सही क्या है। यह पता होना लेकिन उसे न करना साहस का अभाव है। इस बार पहले आजमगढ़ से हुई है। लोहिया के अनुयायियों ने अब परिवारवाद का विरोध करना बंद कर दिया है। शिखर से अखिलेश, धर्मेन्द्र, रामगोपाल, डिंपल यादव, शिवपाल यादव, अक्षय यादव तक हुआ यह कारवां प्रतीक यादव तक आ गया है। घर में अब ज्यादती हो रही है, शिवपाल सिंह यादव के साथ। उनका बेटा जिला पंचायत का अपना पहिला चुनाव हार गया था। अब अगर घर से उसके लिए कोई मांग नहीं करेगा। तब फिर कल को हो सकता है। बाहर ही से कोई उसके लिए मांग कर दे। वह राजनीति में प्रतीक यादव से वरिष्ठ तो हैं ही।
महिला आरक्षण बिल पर यदि सपा की जिद के चलते यदि पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों को प्रथक आरक्षण की मांग मान ली गई। तब फिर आने वाले दिनों में देश के सबसे बड़े समाजवादी परिवार की महिलायें भी डिंपल यादव का अनुसरण करती हुईं अपने पतियों के साथ लोकसभा और विधानसभा की शोभा बढ़ायेंगीं।
सपा में नेताओं के चरण चिन्हों पर चलने वालों की लंबी जमात है। शिखर पर प्रारंभ हुई प्रतीक संस्कृति जब जिलों में अपने प्रारंभिक रूप के बाद आने वाले दिनों में तेजी से फैलेगी तब फिर प्रदेश में लोक सभा और विधानसभा की कितनी सीटें बढ़ानी पड़ेंगी। इसकी गिनती में देर लग सकती है। परन्तु जिले के अखिलेशों, धर्मेन्द्रों, डिंपलों, अक्षयों, प्रतीकों वह चाहें जिस पार्टी के क्यों न हों। उनकी गिनती तो तत्काल हो सकती है। इस कार्य को आज से अभी से प्रारंभ कर दीजिए। आज बस इतना ही। जय हिन्द!
सतीश दीक्षित
एडवोकेट