Thursday, December 26, 2024
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कांशीराम के बाद चौराहे पर दलित आंदोलन : बसपा में माया को छोड़ कोई दलित स्टार प्रचारक नहीं

लखनऊ : बसपा ने मान्यवर काशीराम के जाने के बाद काफी ऊंचाइयां हासिल की है। यह सत्य है, इसे कोई झुठला नहीं सकता। इसका श्रेय वन एंड ओनली बसपा की बहन और सुप्रीमों मायावती को जाता है। मायावती दलितों के चिंतक मान्यवर कांशीराम की उत्तराधिकारी हैं। कांशीराम ने ही माया को आगे बढ़ाया था। उनको दलित होने के नाते मायावती से काफी अपेक्षाएं थीं।

आश्चर्य होता है कि सतीश मिश्रा आज बसपा सुप्रीमो मायावती के सबसे करीब हैं

कांशीराम ही क्या, राजनैतिक पंडित भी यह मानते थे कि मान्यवर के मिशन को कोई अगर ईमानदारी से पूरा कर सकता है तो वह मायावती ही हैं, लेकिन आज के हालात पर गौर किया जाए तो माया अपने मात्र दलितों की रहनुमा नहीं रह गई हैं। सत्ता पर पकड़ मजबूत करने के लिए उन्होंने अपने तौर-तरीके बदल लिए हैं। दलित उत्थान की जगह उनका मिशन सोशल इंजीनियरिंग हो गया है, जिसके जनक भले ही कभी भाजपा के थिंक टैंक माने जाने वाले गोविंदाचार्य रहे हों लेकिन बसपा में इस फार्मूले को लाने का श्रेय एक ब्राहमण (सतीश मिश्रा) को ही जाता है। वो ब्राहमण जिसे मान्यवर जीवनभर दलितों का दुश्मन और मनुवादी बताते रहे।

आश्चर्य होता है कि सतीश मिश्रा आज बसपा सुप्रीमों के सबसे करीब हैं। माया सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान वह अहम फैसलों के भागीदार रहे तो चुनाव के समय वह बसपा सुप्रीमों मायावती के साथ स्टार प्रचारक के रूप में देखे जा रहे हैं। कांशीराम के समय की बसपा और आज की बसपा की तुलना की जाए तो जमीन आसमान का फर्क नजर आता है। बसपा के लिए कांशीराम का महत्व उनके विचारों को आगे बढ़ाने की बजाए उनकी मूर्तिंयों की यहां-वहां स्थापना और दलितों के लुभाने भर के लिए रह गया है। बसपा को कुछ खास मौकों पर ही कांशीराम याद आते हैं।

अब बसपा में न वो तेवर रह गए हैं और न जुझारूपन जो मान्यवर कांशीराम के समय देखने को मिलता था। मान्यवर कांशीराम को करीब से जानने वाले आज भी उनका गुणगान करते नहीं थकते। वो कहते हैं- वो एक दौर था। कांशीराम के साथ साइकिलों पर प्रचार टीम चलती थी। मान्यवर का आदेश मिलते ही उनके संगी-साथी दीवारों पर लिख देते थे, ‘बाबा तेरा मिशन अछूरा, कांशीराम करेंगे पूरा।’ इन लोगों के साथ कांशीराम भी साइकिल से चलते थे। काडर बेस पार्टी हुआ करती थी। कांशीराम की सभा कराने के लिए लोग पहले चंदा एकत्र करते, फिर सभा होती। मिशन बस एक था। दलितों को संगठित करके उनमें स्वाभिमान पैदा किया जाए।

दलितों में स्वाभिमान जगाने के लिए जनजागरण अभियान और चेतना यात्राएं कभी न रूकने वाला सिलसिला हुआ करता था। इसके लिए कांशीराम द्वारा बाकायदा डीएस-4 नाम से संगठन बनाया गया था। डीएस-4 जनजागरण अभियान चलाता तो बामसेफ नामक संस्था सरकारी क्षेत्र के दलितों को संगठित करने का काम करता। बामसेफ ब्राहमणवादी व्यवस्था में बदलाव चाहता था। बामसेफ का गठन मान्यवर कांशीराम ने अपने कुछ मराठा मित्रों के साथ मिलकर 6 दिसंबर 1978 को किया था। बामसेफ ने ही 1984 में बसपा को जन्म दिया।

मान्यवर कांशीराम ने बामसेफ और बसपा दोनों का ही गठन किया था, लेकिन आज दोनों के बीच गहरी दरार पड़ गई है। कांशीराम के साथ काम करने वाले एक वरिष्ठ कार्यकर्ता सिद्धार्थ बौद्धायन से जब पूछा गया तो वह बेबाक बोल दिए, ‘कांशीराम जी के समय में ऐसे लोग उनके साथ जुड़ते थे जिनके लिए दलित उत्थान का सपना एक मिशन जैसा था, लेकिन आज कमीशन वाले लोग संगठन में आ गए हैं। अब वो लोग कम से कम बसपा में तो दिखते ही नहीं हैं जिनका सरोकार दलित उत्थान से हो।’ बौद्धायन की बात में दम लगता है। आज जो लोग बसपा सुप्रीमों के बगलगीर हैं, उसमें सतीश मिश्र, रामवीर उपाध्याय, नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेता हैं जिनका दलितों के उत्थान में कोई प्रमाणिक योगदान नहीं है। यह लोग बसपा को सत्ता तो दिला सकते हैं लेकिन दलितों के बारे में उनकी सोच सीमित है।

भले ही मायावती को आगे बढ़ाने मे कांशीराम का विशेष योगदान रहा हो लेकिन मायावती ने दलितों के किसी नेता को न आगे बढ़ने दिया और न पनपने। मायावती के कारण ही दलित हितों के लिए काम करने वाले कई आर.के चौधरी जैसे दलित नेताओं ने उनका साथ छोड़ दिया। माया ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि प्रदेश और देश में बिखरे हुए दलितों के नेताओं को एक साथ, एक मंच पर लाया जाए। ताकि दलितों के स्वाभिमान की लड़ाई को मजबूती से लड़ा जा सके। मायावती अपने को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी समझने का सपना पाले बैठी हैं। इसी चक्कर में दलित समाज का उतना भला नहीं हो पा रहा है जितना एकजुट होकर किया जा सकता है। इसका उदाहरण है लोकसभा में घटता दलितों का प्रतिनिधित्व। 14वीं लोकसभा में जहां दलितों की संख्या 24 थी, वहीं अब 21 रह गई है।

आज विभिन्न राजनैतिक दल दलित वोट बैंक को लपकने के लिए अपने यहां दलित नेताओं को शोपीस की तरह पेश कर रहे हैं लेकिन मायावती इससे भी कोई सबक नहीं ले रही हैं। अपने यहां के दलित नेता पड़ोसी देश नेपाल के सांसदों से सबक ले सकते हैं। नेपाल के काठमांडू में एक दलित व्यक्ति की हत्या के विरोध में 19 दिसंबर को दलित सांसदों ने सदन की कार्यवाही तब तक नहीं चलने दी जब तक कि संसद ने उसे संज्ञान में नहीं ले लिया। दलित नेता पूरे मामले पर सरकार से जवाब मांग रहे थे। सदन के अध्यक्ष ने दलित सांसदों को शांत कराने की काफी कोशिश की लेकिन दलित प्रतिनिधियों के जोरदार विरोध के कारण सदन की कार्यवाही स्थगित करना पड़ा।

नेपाली सांसदों की दलित उत्पीड़न को लेकर विरोध की तुलना भारत की राजनीति से करने पर निराशा ही हाथ लगती है। आज तक भारतीय संसद में दलित उत्पीड़न को लेकर कोई बड़ा विरोध देखने को शायद ही मिला हो। कभी-कभी राजनैतिक फायदे के लिए दलितों की आवाज उठा दी जाती है, लेकिन उसमें दिखावा अधिक होता है। अक्सर विभिन्न दलों के नेता पार्टी लाईन से हट कर दलितों के लिए कुछ बोलने से कतराते हैं। यही वजह है कि भारत में दलितों की दशा में उतना सुधार नहीं आ पाया है, जितना बदलाव अल्पसंख्यकों के मामले में दिखाई दे रहा है। वोट बैंक की राजनीति का ही परिणाम है कि समृद्धशाली अल्पसंख्यकों को आरक्षण की वकालत हो रही है, वहीं जरूरतमंदों का हक छीना जा रहा है।

आज के दलित नेता पूरी तरह से भटक गए हैं। अंबेडकर को कोई नहीं अपनाता तो बसपा भी कांशीराम से दूर चली गई है। यही वजह है दलित तमाम दावों के बाद भी दलित ही बने हुए हैं। आज का दलित नेता दलितों के हितों की बात करने की बजाए समझौतों से काम चला रहा है। मायावती तो जगह-जगह जाकर बता रही हैं कि ब्राहमणों की दशा भी दलितों की ही तरह है। बसपा का तो एक ही फार्मूला रह गया है, कुछ ब्राहमणों को अपने साथ ले आओ, कुछ क्षत्रियों को जोड़ लो, थोड़े बनिए और अल्पसंख्यक साथ आ जाएं तो अपना काम (सरकार) बन जाए। सामाजिक व्यवस्था को बदलने का अभियान जो दलित राजनीति का मुख्य मुद्दा होता था, वह मुद्दा ही नहीं रहा। मंडल आयोग से पूर्व राजनैतिक दल सत्ता में रहते थे। मंडल आयोग के बाद अब जातियां और जातीय आधार पर बने और उभरते दल सत्ता में रहते हैं। आज दलित नेतृत्व में सोच के अभाव के कारण बिना चुनावी राजनीति किए जो काम बाबा साहब अंबेडकर दलितों के लिए कर गए वह काम आज बहुमत वाली सरकारें भी नहीं कर पा रही हैं। आज स्थिति यह हो गई कि दलित भी एकजुट होकर माया के साथ नहीं है।

बसपा सुप्रीमों मायावती से दलितों को बेहद उम्मीद थी। वह दलितों के लिए स्टार जैसी थीं, लेकिन उन्होंने दलितों के सपनों को सबसे अधिक चकनाचूर किया। आज स्थिति यह हो गई है कि माया को मिशन 2012 पूरा करने के लिए उच्च जाति और अल्पसंख्यक बिरादरी के नेताओं पर ज्यादा आश्रित रहना पड़ रहा है। सतीश मिश्र बसपा सुप्रीमों के बाद दूसरे नंबर के स्टार प्रचारक माने जाते हैं। यह और बात है कि ब्राहमणों को बसपा के साथ जोड़ने की बजाए उनका ज्यादा ध्यान अपने परिवार को बसपा के साथ जोड़कर फायदा उठाने में रहा। सतीश मिश्र का जादू पिछली बार जरूर ब्राहमणों पर थोड़ा-बहुत चल गया था, लेकिन अबकी से ब्राहमण उनके और बसपा के झांसे में आने वाला नही है।

बसपा के स्टार प्रचारकों में तीसरा नाम भी किसी दलित नेता का नहीं है। यहां पर नसीमुद्दीन सिद्दीकी खड़े हैं। सिद्दीकी की बसपा में ठीक वैसी ही स्थिति है जैसी कि कांग्रेस में सलमान खुर्शीद की है। उन्हें न नमाजी मानते हैं न काजी। नसीमुद्दीन द्वारा इस्लाम के निर्देशों के खिलाफ जाकर आबकारी विभाग की जिम्मेदारी संभालने से रुढिवादी मुसलमानों का एक धड़ा उनसे नाराज चल रहा है। इस्लाम शराब के धंधे की इजाजत नहीं देता है। बसपा के स्टार प्रचारकों में चौथे स्थान पर दो नेता खड़े हैं, इसमें एक पिछड़ी जाति के स्वामी प्रसाद मौर्य हैं | और दूसरे ब्राहमण नेता रामवीर उपाध्याय हैं। रामवीर के खिलाफ भी नसीमुद्दीन सिद्दीकी की तरह लोकायुक्त जांच कर रहे हैं। उपाध्याय का पूरा परिवार बसपा से फायदा उठाने में लगा है।

note: लेखक अजय कुमार उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. ‘माया’ मैग्जीन के ब्यूरो प्रमुख रह चुके हैं. वर्तमान में ‘चौथी दुनिया’ और ‘प्रभा साक्षी’ से संबद्ध हैं.

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