विगत एक दशक से डराती आ रही 6 दिसंबर की तारीख इस बार सुकून से गुजरी तो लोगों ने राहत की सांस ली। पीढ़ियों से साथ रहते आये पड़ोसी अचानक 6 दिसंबर 1992 को बेगाने हो गये थे। एक तारीख ने अचानक उन्हें अहसास करा दिया कि वे या तो हिन्दू हैं या मुसलमान। मंदिर-मस्जिद के ध्वस्त अवशेषों पर इनसानियत आंसू बहाती रही, और गलियों में लोग की खून की होली खेलते रहे। बरसों पड़ोसी एक-दूसरे से बिना बात ही, बात करने से कतराते रहे। जली हुई दुकानें और घर तो इतने सालों में फिर बन गए हैं लेकिन जिन्होंने अपने पति, बाप या बेटे इसमें खो दिये उनके दिलों के कई जख्म हैं जो इस तारीख ने हमेशा के लिए दर्ज कर दिए हैं।
यूं तो अंग्रेजों ने व उनके जाने के बाद देसी नेताओं ने धर्म की आड़ में हमेशा ही देश में सांप्रदायिकता व दंगों की आग पर अपनी राजनीति की रोटिंयां सेंकी हैं। फिर भी छह दिसंबर ने देश की सांप्रदायिक एकता को जो ठेस पहुंचाई वह सबसे करारी थी। आज मोहर्रम का पवित्र दिन है ताजिए पर मन्नतें मांगने वाले हिन्दूओं की संख्या मुस्लिमों से कम नहीं रही। शहरों के इमामबाड़े से लेकर दूर दराज के ग्रामीण क्षेत्रों तक में ताजियों पर चिराग रोशन करते हुए मन्नत के धागे मुस्लमों से ज्यादा हिन्दूओं ने बांधे हैं। कैसा संयोग है कि वह जो लाल, नीले, पीले और हरे रंग के महीन धागों से बनी है वह हिन्दू के लिये “मौली” है, और मन्नत का “कलावा” भी वही है। दोनों धर्मों के लिए उतना ही पवित्र उतना ही श्रद्धा से सराबोर। इस बार न तो शौर्य दिवस मनाने को किसी ने हुंकार भरी और न ही कहीं मना काला दिवस। शायद लोगों की समझ में आ गया है कि मंदिस मस्जिद के विवाद हमें उलझाकर अब घोटालों और भ्रष्टाचार का खेल बहुत दिन नहीं चलने वाला। आइये आज हम एक सांप्रदायिक एकता की ऐसी मिसाल रचें कि 6 दिसंबर जैसी फिर कोई तारीख यूं कसैली याद बनकर हमें ना डराए।
न जाने कब, कैसे और क्यूं हम किसी ढोंगी नेता की बातों में आकर अपनों के ही खिलाफ हो जाते हैं । नेता दाने डाल कर लड़ा कर अपना मतलब हमारे सामने ही सिद्ध कर के चला जाता है, और हम लूटे-पिटे छले हुए से इस अहसास को भीतर तक नहीं उतार पाते कि यह लड़ाई-झगड़ा-नफरत-हिंसा हमारा धर्म नहीं है। आज देश का एक ही धर्म है विकास, एक ही मजहब है तरक्की। एक ही मंत्र है सुरक्षा और एक ही आयत है एकता। जब नन्हे-नन्हे पंछी कुदरत के नियम को अपनी एकता के दम पर मुंह चिढ़ा सकते हैं तो हम तो मनुष्य हैं। एकता का अर्थ अब भी हम नहीं समझें तो फिर कब समझेंगे?