प्रदेश में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मायावती द्वारा राज्य विभाजन का प्रस्ताव लाना, मात्र चुनावी हथियार भर नहीं है, इसके और भी कुछ खतरनाक निहितार्थ हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। अंग्रेजों के द्वारा बंग भंग के समय से शुरू हुई बांटो और राज्य करों की नीति का यह खतरनाक विस्तार कहां जा कर रुकेगा। हो सकता है कि कल राज्य की सीमा जनपद की सीमा पर अटक जाये। इनता ही नहीं इससे क्षेत्रवाद की मानसिकता को भी बढ़ावा मिलेगा। अगर माया व अजीत की चली और यूपी का विभाजन हो गया तो पूर्वांचल और बुदेंलखंड के जो लोग हरित प्रदेश और अवध प्रदेश में रोजगार करते हैं तो उन्हें क्षेत्रवाद का शिकार होना पड़ सकता है। लखनऊ व मेरठ के लोगों को झांसी व बलिया में ऐसे ही बर्ताव का सामना करना पड़ सकता है।
प्रश्न यह है कि राज्य को छोटे-छोटे राज्यों में बांट देने से उस राज्य में रह रहे आम लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएगी। राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा की गारंटी हो जाएगी। परंतु हकीकत यह है कि राज्य के विभाजन से अगर किसी को फायदा होता है तो वह है नेता। विभाजन हुआ तो हर राज्य में विधानसभा होगी। अलग अलग मुख्यमंत्री व मंत्रिमंडल होगा। ढेरों कैबिनेट और राज्य मंत्री होंगे। उनके लिए राज्य की सारी सुविधाएं होंगी। इन सुविधाओं को पूरा करने के लिए धन राज्य के खजाने से आएगा। इस तरह जनता का बहुमूल्य धन विकास से अधिक इन नेताओं की सुख सुविधा पर व शेष इनकी लूट खसोट में जाएगा। अगर सरकार राज्य का बिना विभाजन किए प्रदेश के कोने-कोने का विकास करना चाहे तो कोई मुश्किल नहीं है। इसके लिए भ्रष्टचार मुक्त शासन व्यवस्था बनानी होगी। ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले व्यक्ति को चुनाव में टिकट व आपराधिक तत्वों को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाना होगा। परंतु इसके लिये जिस इच्छा शक्ति की जरूरत है वह किसी में है नहीं।
अगर इस तरह नए राज्य बनाने की मांग बढ़ती रही तो कई ऐसे प्रदेश हैं जिसे तोड़कर कई राज्यों में बांटना पड़ेगा। अभी यूपी के विभाजन की बात उठी है, इससे पहले आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना, महाराष्ट्र से अलग विदर्भ, पश्चिम बंगाल से अलग गोरखालैंड राज्य की मांग उठती रही है। तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर तो लंबे समय से आंदोलन जारी है। अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति से तहत बंग भंग किया। जिसका तत्कालीन जनता ने जमकर विरोध किया था। इसके बावजूद बंगाल का विभाजन हुआ। 1905 से पहले बंगाल, बिहार, असम और उड़ीसा सभी एक ही प्रांत के हिस्से थे। 1911 में असम अलग राज्य बना और बिहार 1912 में बंगाल से अलग हुआ। फिर 1936 में बिहार से अलग होकर उड़ीसा राज्य बना। देश के आजाद होने के बाद भाषाई आधार पर राज्य का विभाजन शुरू हुआ। 1953 में सबसे पहले तेलगू भाषियों के लिए मद्रास से अलग आंध्र प्रदेश राज्य का गठन हुआ। उसके बाद 1960 में मराठी के लिए महाराष्ट्र और गुजराती के लिए गुजरात। 1963 में असम से अलग नागाओं के लिए नगालैंड। इसी तरह 1966 में पंजाब और हरियाणा, 1973 में मणिपुर, त्रिपुरा, मेधालय राज्य बने। 1975 में सिक्किम और 1987 में मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और गोवा को राज्य का दर्जा दिया गया।
जब राज्य बंटता है तो लोगों की सोच में भी बदलाव आता है। आज इन सभी राज्यों के लोगों के बीच एकता नहीं है। वे सभी बंगाली, बिहारी, असामी, उड़िया, गुजराती, मराठी, पंजाबी और मणिपुरी इत्यादि में बंट चुके हैं। यही हाल नए राज्यों का भी होना है। एक राज्य के लोग दूसरे राज्य में नौकरी या व्यापार करने जाते हैं तो उनके साथ दोयम दर्जे सा व्यवहार होता है। जिसका उदारहण मुंबई और असम में कई बार देखने को मिला है।
आजादी के बाद देश में 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश थे। जो अब बढ़कर 28 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश हो गए, लेकिन आम आदमी की समस्याएं जैसी की तैसी हैं। वर्ष 2000 में तीन नए राज्य बने। बिहार से अलग होकर झारखंड बना। मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ बना। उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड बना।
उदाहरण के लिये झारखंड खनिज सम्पदा में अग्रणी राज्य है। परंतु आज भी ग्रामीण इलाकों में पानी, बिजली और रोजगार की समस्या है। आदिवासी लोग रोजगार के लिए जंगल पर निर्भर हैं। राज्य बनने के बाद से सभी ने जमकर लूट-खसोट की। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा चार हजार करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में जेल में बंद हैं।