हमारी भारतीय संस्कृति में अनेक व्रतोत्सव मनाए जाते हैं। इनमें तुलसी-शालिग्राम जी का विवाह एक महत्वपूर्ण आयोजन है। यह विवाह अखण्ड सौभाग्य देने वाला है। अत: भारतीय महिलाएं इस व्रतोत्सव को पूर्ण श्रद्धा और मनोयोग से पूर्ण करती हैं। यह विवाह कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन आयोजित किया जाता है। इस विवाह का पौराणिक महत्व है।
ब्रrावैवर्त पुराण की कथा के अनुसार— कालांतर में तुलसी देवी भगवान गणेश के शापवश असुर शंखचूड की पत्नी बनीं। जब असुर शंखचूड का आतंक फैलने लगा तो भगवान श्री हरि ने वैष्णवी माया फैलाकर शंखचूड से कवच ले लिया और उसका वध कर दिया। तत्पश्चात् भगवान श्री हरि शंखचूड का रूप धारण कर साध्वी तुलसी के घर पहुंचे, वहां उन्होंने शंखचूड समान प्रदर्शन किया। तुलसी ने पति को युद्ध में आया देख उत्सव मनाया और उनका सहर्ष स्वागत किया। तब श्री हरि ने शंखचूड के वेष में शयन किया। उस समय तुलसी के साथ उन्होंने सुचारू रूप से हास-विलास किया तथापि तुलसी को इस बार पहले की अपेक्षा आकर्षण में व्यतिक्रम का अनुभव हुआ। अत: उसे वास्तविकता का अनुमान हो गया। तब तुलसी देवी ने पूछा—मायेश! आप कौन हैं, आपने मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया, इसलिए अब मैं तुम्हें शाप दे रही हूं।
तुलसी के वचन सुनकर शाप के भय से भगवान श्री हरि ने अपना लीलापूर्वक अपना सुन्दर मनोहर स्वरूप प्रकट किया। उन्हें देखकर पति के निधन का अनुमान करके कामिनी तुलसी मूर्छित हो गई। फिर चेतना प्राçप्त होने पर उसने कहा—नाथ आपका ह्वदय पाषाण के सदृश है, इसलिए आप में तनिक भी दया नहीं है। आज आपने छलपूर्वक धर्म नष्ट करके मेरे स्वामी को मार डाला। अत: देव! मेरे शाप से अब पाषाण रूप होकर आप पृथ्वी पर रहें। इस प्रकार शोक संतृप्त तुलसी विलाप करने लगी। तब भगवान श्री हरि ने कहा—भद्रे। तुम मेरे लिए भारतवर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। अब तुम दिव्य देह धारण कर मेरे साथ सानन्द रहो। मैं तुम्हारे शाप को सत्य करने के लिए भारतवर्ष में पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूंगा और तुम एक पूजनीय तुलसी के पौधे के रूप में पृथ्वी पर रहोगी। गण्डकी नदी के तट पर मेरा वास होगा। बिना तुम्हारे मेरी पूजा नहीं हो सकेगी। तुम्हारे पत्रों और मंजरियों में मेरी पूजा होगी। जो भी बिना तुम्हारे मेरी पूजा करेगा वह नरक का भागी होगा। इस प्रकार शालिग्राम जी का उद्भव पृथ्वी पर हुआ। अत: तुलसी-शालिग्राम का विवाह पौराणिक आख्यानों पर आधारित है। इस विवाह में लोग तुलसी जी के पौधे का गमला, गेरू आदि से सजाकर उसके चारों ओर ईख का मंडप बनाकर उसके ऊपर ओढ़नी या सुहाग प्रतीक चूनरी ओढ़ाते हैं। गमले को स़ाडी ओढ़ाकर तुलसी को चू़डी चढ़ाकर उनका शृंगार करते हैं।
गणपत्यादि पंचदेवों तथा श्री शालिग्राम का विधिवत पूजन करके श्री तुलसी जी की षोडशोपचार पूजा “तुलस्यै नम:” अथवा “हरिप्रियार्ये नम:” नाम मंत्र से करते हैं। तत्पश्चात एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखते हैं तथा भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा कराएं और आरती के बाद विवाहोत्व पूर्ण होता है। इस विवाह को महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में अखण्ड सौभाग्यकारी माना गया है। पुराणों में भी इसे मंगलकारी बताया गया है।