अनुशासन व आस्था का संगम है ‘कांवड़ यात्रा’

FARRUKHABAD NEWS

फर्रुखाबाद:(दीपक शुक्ला) कांवड़ में गंगाजल लेकर अपने आराध्य देव भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए भक्तों का सैलाब गंतव्य की ओर कूच करता है। आस्था और अनुशासन के उल्लास में डूबी केसरिया कतार में बम भोले का जयघोष लगातार बुलंद हो रहा है। भक्तों का विश्वास है कि सावन महीने में भोले भंडारी शिव कैलास छोड़कर शिवालयों में बसेरा कर लेते हैं। वह भक्तों की फरियाद ही नहीं सुनते, बल्कि आशीर्वाद से उनकी झोली भी भर देते हैं। यही कारण है कि भगवान और भक्त का मिलन कराने वाले सावन में भक्ति शिखर पर होती है। इस बार प्रस्तुत है कांवड़ के पौराणिक महत्व और इतिहास को स्पर्श करती हुई शिवभक्ति की कथा। ‘कांवड़’ शब्द संस्कृत के कांवारथी से बना है। यह बांस की पट्टी से बनाई गई एक तरह की बहंगी होती है। वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का संगम होने पर ही यह कांवड़ भक्ति और आस्था में परिवर्तित हो जाती है। भक्त इसे फूलमाला, घटी, खिलौने और घुंघरुओं से खूब सजाते हैं। यात्रा के दौरान शिवभक्त सांसारिक दुनिया से दूर वैराग्य जीवन बिताते हैं। वे अपने आपको सख्त अनुशासन में बांधकर रखते हैं। ब्रह्मचर्य, शुद्ध विचार, सात्विक आहार और नैसर्गिक दिनचर्या का पालन करते हैं। कावड़ यात्रा को जीवन यात्रा के प्रतीक स्वरूप समझा जा सकता है। इसका उद्देश्य कठिन यात्रा को अनुशासन, सात्विकता और वैराग्य के साथ ईश्वर तक पहुंचाना निर्धारित किया गया है। कठिन यात्रा के दौरान तमाम नियमों का पालन करते हुए शिव भक्त अपनी मान्यता के अनुसार शिवालय तक पहुंचते हैं और शुभ मुहुर्त में कांवड़ में लाए गए गंगाजल से शिव का अभिषेक करते हैं। फर्रुखाबाद में भी गंगा के किनारे किनारे बड़ी संख्या में शिव मन्दिर हैं|
परशुराम ने शुरू की थी कांवड़
कांवड़ यात्रा को लेकर कई पौराणिक कहानियां काफी समय से चली आ रही हैं। सबसे प्रचलित कहानी परशुराम की है। कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव (जनपद बागपत) में मंदिर की स्थापना की। उन्होंने कावड़ में गंगाजल लाकर पूजन कर कावड़ परंपरा की शुरुआत की। वर्तमान में देशभर में कांवड़ यात्रा काफी प्रचलित है। कथा के अनुसार कावड़ परंपरा शुरू करने वाले भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में की जानी चाहिए। परशुराम श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को कावड़ में जल लाकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते थे। शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान आशुतोष का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से मन शीतल होता है।
राम और रावण भी लाए थे कांवड़
दूसरी कथा के अनुसार शिव का परम भक्त लंका नरेश रावण पहला कांवड़िया था। रावण भी शिव को प्रसन्न करने के लिए कांवड़ में गंगाजल लेकर आता था और जलाभिषेक करता था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी शिव की पूजा करने के साथ कावड़ लाकर गंगाजल का अभिषेक किया था। कांवड़ को लेकर कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं।
चार प्रकार की होती है कावड़ सामान्य कावड़
हरिद्वार और गंगोत्री से गंगाजल लेकर चलने वाले कांवड़िये अपनी आस्था के अनुसार यात्रा पूरी करते हैं। कांवड़ के चार प्रकार निर्धारित किए गए हैं। सामान्य कांवड़ लाने वाले शिवभक्त अपनी यात्रा के दौरान जहा चाहे रुककर आराम कर सकते हैं। आराम के दौरान कावड़ स्टैण्ड पर रखी जाती है। इस दौरान कांवड़ जमीन से दूर रखी जाती है। इसे झूला कांवड़ भी कहा जाता है।
डाक कावड़
डाक कावड़ यात्रा में भक्त को लगातार चलते रहना पड़ता है। वह यात्रा शुरू करने के बाद जलाभिषेक के बाद ही रुकते हैं। यह यात्रा एक निश्चित समय के अंदर पूरी करनी पड़ती है। वर्तमान में शिव भक्त समूह में यह यात्रा करते हैं। वर्तमान में डाक कांवड़ की संख्या में काफी इजाफा हो रहा है।
खड़ी कावड़
भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी संख्या में शिव भक्त खड़ी कावड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए सहयोगी भी साथ चलता है। यात्रा के दौरान कांवड़ को सिर्फ कंधे पर ही रखा जा सकता है। इसे काफी काफी कठिन यात्रा माना जाता है। दांडी कावड़
सबसे अधिक कठोर और शरीर को कष्ट देने वाली कांवड़ दांडी कांवड़ है। दांडी कांवड़ वाले भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। दंड के अनुसार कावड़ यात्रा की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेटकर नापते हुए पूरी करते हैं। कई दिनों में पूरी होने वाली इस यात्रा का अंत शिवालय पहुंचकर भोलेनाथ पर जलाभिषेक के साथ होता है।
समय के साथ बदली कांवड़
पौराणिक समय से आधुनिक काल तक का सफर तय करते हुए कांवड़ के स्वरूप और आस्था में भी काफी बदलाव हुआ है। अब काफी संख्या में शिव भक्त अपने वाहन पर गंगाजल लेकर भोले पर चढ़ाने के लिए निकलते हैं। डाक कांवड़ के दौरान डीजे की तेज आवाज और भव्य साज-सज्जा का पूरा ध्यान रखा जाने लगा है।
शिवरात्रि और महाशिवरात्रि
वर्ष में कुल 12 शिवरात्रि होती हैं। सबसे अहम महाशिवरात्रि को माना जाता है। मान्यता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव का विवाह पार्वती के साथ हुआ था। यही कारण है कि सावन माह में आने वाली शिवरात्रि को काफी श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। मान्यता है कि सावन माह में शिवरात्रि मनुष्य के सभी पाप धो देती है। शिवरात्रि पर व्रत और पूजन करने से पाप का नाश होता है और मान्यता है कि कुंवारे युवाओं को मनचाहा जीवन साथी भी प्राप्त होता है।