कभी कभी इतिहास वर्तमान में छुपा होता है| यू तो ये नाम अब बेनाम नहीं रह गया है मगर 15 साल 22 दिन के बाद किसी विधा का एकाएक बाजार में फिर से आना कौतुहल जरुर पैदा करता है| खासकर 1995 के बाद जवान और जागरूक हुई आबादी के लिए| सतीश दीक्षित ने 1995 में अमरउजाला में आखिरी बार किसी मीडिया में लिखा था, लिखते तो वे बाद में भी रहे कभी जनहित में कभी समाजवादी पार्टी हित में और कभी अपनी भड़ास अन्य अखबारों में छपने के लिए| मगर 15 साल से एक निर्भीक पत्रकार की कलम खामोश थी| अब उसी खामोश कलम की आहट इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया में दिखाई देगी और माध्यम बनने जा रहा है “जोइंट न्यूज़ ऑफ़ इंडिया” जिसे आप जेएनआई कहते है |
तब सतीश फर्रुखाबाद अमर उजाला के इंचार्ज हुआ करते थे| नेहरु रोड पर उनका कार्यालय था उनके साथ उन दिनों वेदपाल सिंह (वर्तमान डीएलए) स्व घनश्याम सिंह दहिया ‘वकील’ (पूर्व विधायक विजय सिंह के भाई), चंद्रशेखर (वर्तमान फोटोग्राफर राष्ट्रीय सहारा) आदि भाई लोग भी कलम घिसते थे| वो लोकसभा के चुनाव का दौर था जब सतीश ने अमर उजाला के आगरा मुख्यालय अंतिम फोन मालिको को किया था “अपने लिए नए पत्रकार और दफ्तर तलाश लो”| उस वक़्त जिले में अमर उजाला, दैनिक जागरण एक दूसरे से चंद प्रतियों के लिए आगे पीछे लड़ते थे| मुकाबला कड़ा था| एक तरफ सत्यमोहन पाण्डेय दैनिक जागरण से तो दूसरी तरफ सतीश दीक्षित अमर उजाला से| खबरों की दुनिया के दो बेहतरीन खिलाडी खबरों से एक दूसरे से सिर्फ आगे बने रहना चाहते थे| फिर एक दिन अमर उजाला के मालिको का फोन आया ” दीक्षित जी” लोकसभा चुनाव में फलां नेता को बेहतर कवर करो| सतीश ने दो टूक जबाब दिया- “किसकी बात कर रहे हो अग्रवाल साहब ये नेता जी तो सबसे निचली पायदान पर संघर्ष कर रहे है मुझसे झूठी प्रशंसा और चापलूसी नहीं लिखी जा सकेगी”| अमर उजाला के मालिको (अग्रवाल और महेश्वरी) पर दिल्ली से दबाब पड़ा था सो दीक्षित जी पर सरका दिया, मगर बात बनने की जगह बिगड़ गयी| अमर उजाला से सतीश ने टाटा कर लिया| चुनाव हुआ और दबाब बनाने वाले नेता जी जीतने की जगह सिर्फ जमानत बचाने में ही कामयाब हो पाए| नेताजी को दुबारा जीतने के लिए राम वनवास जैसा वक़्त काटना पड़ा| खैर ये हिंदुस्तान में मीडिया की दूसरी तस्वीर है जो सामान्य पाठको तक नहीं पहुचती| एक मीडिया और अख़बार का मालिक बेचारा अपना सर्कस चलाने के लिए राजनीति के जानवरों का शिकार मजबूरी में होता है|
वो दिन है और आज का दिन है सतीश की कलम किसी एक अख़बार के लिए नहीं चली| पत्रकार से सम्पूर्ण नेतागिरी पर उतर आये| समाजवादी पार्टी में रहते हुए भी समाजवादी पार्टी के नेताओ के खिलाफ बोल देना उनकी पत्रकारिता के कीड़ो के कारण होता रहा| कहाँ राजनीती और कहाँ पत्रकारिता एक चापलूसी भरा आँगन तो दूसरा बखिया उघेड़ने का बेमेल धंधा|
15 साल पहले सतीश दीक्षित जवान थे जोशीले थे अब अधिक तजुर्बेदार हो गए है| हिंदुस्तान में मीडिया में इतिहास रचने की और बढता जेएनआई न्यूज़ उनके तजुर्बे और लेखन कला को सलाम करते हुए सतीश दीक्षित को अपने संस्थान के लिए लिखने तैयार करने में कामयाब हो गया|
जेएनआई पर रविवार 8 मई 2011 से “फर्रुखाबाद परिक्रमा -सतीश दीक्षित” शीर्षक से उनका एक नियमित कालम होगा जिसका लुफ्त न केवल फर्रुखाबाद की जनता उठा सकेगी बल्कि जेएनआई के एक ग्लोबल मीडिया होने के कारण अब अमेरिका में बैठा ओबामा भी पढ़ सकेगा कि एक फरुखाबादी हर दिल अजीज मुंशी क्या कहता है- ओबामा बड़ा या ओसामा? मरे हुए की मरने की गारंटी लेने वाला ओबामा कैसे बड़ा हुआ?