लखनऊ:उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत अध्यक्ष की एक-एक सीट के लिए भाजपा और सपा में खींचतान सिर्फ पंचायतों पर झंडा बुलंद करने के लिए नहीं है। इन चुनावों के अंतिम नतीजे ही इशारा करेंगे कि गांवों में सपा की नई हवा वाकई चल पड़ी है या फिर भाजपा की पुरानी लहर का असर अभी बरकरार है। कोरोना की भीषण आपदा और कृषि कानून विरोधी आंदोलन के बावजूद आल इज वेल का संदेश देने के लिए भाजपा अधिक से अधिक सीटें जीतने की जुगत में हैजिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में सीधा मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही है। नामांकन वापसी तक 75 में से 22 सीटों की स्थिति साफ हो गई है। 21 सीटों पर भाजपा तो एक पर सपा के प्रत्याशी का निर्विरोध निर्वाचन हो चुका है। अब बाकी 53 सीटों के लिए चुनाव और मतगणना की प्रक्रिया तीन जुलाई यानी शनिवार को होनी है। अधिकतर सीटों पर भाजपा और सपा के ही प्रत्याशियों में मुकाबला है।
भाजपा के रणनीतिकार मानते हैं कि कोरोना की पीड़ा को कुरेदकर विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि सत्ताधारी दल पचास से अधिक जिला पंचायत अध्यक्ष जी लेती है तो वह बड़ा संदेश देने में कामयाब होगी। पार्टी ने उसी के मुताबिक तैयारी भी की है। इसके बाद ब्लाक प्रमुख के चुनावों में पूरी ताकत झोंकने की तैयारी है।राजनीतिक दल अपने समर्थित प्रत्याशी को घोषित करते हैं। हार झेलने वाले दल इसकी आड़ में बेशक चेहरा झुपाने का प्रयास करें लेकिन स्थिति साफ हो ही जाती है कि किस दल का पलड़ा भारी रहा। पार्टी की कमजोरी का संदेश जनता में न जाए शायद इसीलिए बसपा ने इस चुनाव से किनारा कर लिया है। इस लिहाज से लगभग 70 फीसद ग्रामीण आबादी वाले उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों को आगामी विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहना कतई गलत न होगा।
बेनतीजा रही कांग्रेस की कसरत : कांग्रेस के रणनीतिकार भी मानते रहे हैं कि प्रदेश की सत्ता पाने के लिए गांवों में पार्टी को मजबूत करना होगा। इसी सोच के साथ 2017 के विधानसभा चुनाव में सांसद राहुल गांधी ने गांवों में खाट सभाएं कीं लेकिन सपा से गठबंधन कर चुनाव लड़ने पर भी कामयाबी न मिली। 2019 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा ने संगठन की कमान संभाली तो उनका भी जोर गांवों पर खूब रहा। कृषि कानून विरोधी आंदोलन को हवा दी गई। इस सबके बावजूद पंचायत चुनावों में पार्टी कहीं नजर नहीं आ रही।