डेस्क: क्रिकेट का सीजन जैसे ही शुरू होता है देश में एक्सपर्ट राय देने वालों की संख्या में कमी नहीं होती। ये लोग बैटिंग और बॉलिंग पर तो अपनी राय देते ही हैं, साथ ही मैदान और पिच पर भी अपना कमेंट देने से नहीं चुकते। ऐसा लगता है जैसे इन्होंने वानखेड़े और ईडन गार्डन्स जैसे स्टेडिमय में घंटों पसीने बहाए हैं। हालांकि युवा क्रिकेट पर ही अपनी बेशकीमती राय देते हैं, लेकिन जब बात राजनीति की पिच की हो रही हो, तो वहां हर कोई सूरमा बन जाता है। यहां तो वह पति भी जो अपनी बीवी के सामने भीगी बिल्ली बनकर रहता है, हुंकार भरने लगता है। तब पत्नी को भी लगता है कि चुनावी मौसम है आचार संहिता उल्लंघन करने की जरूरत नहीं है।
वैसे चुनावी मैदान में कॉलोनी की वह आंटी भी उतर आती हैं, जिन्हें आटा, दाल, चावल और नून-तेल से हटकर सोचने की फूरसत नहीं है। उनके लिए तो घरेलू चीजें ही राष्ट्रीय मुद्दा है और इसी के आधार पर वो वोट भी देती हैं। ऐसे समय में दादा-दादी और नाना-नानी भी पीछे नहीं रहते। उनके मुंह में भले ही दांत न हो, लेकिन पसंदीदा नेता के बारे में बात करने से नहीं चुकते।
चुनाव की बात हो रही है तो ऐसे समय में दो दोस्तों के बीच हंसी-मजाक की बातें कभी-कभी सीरियस भी हो जाती है। ऐसा लगता है नेता नहीं, दो दोस्त एक-दूसरे के खिलाफ चुनावी मैदान में खड़े हैं। पहले तो ये दोस्त एक साथ बैठकर एप पर जाकर चुनाव पर फनी वीडियो का मजा लेते हैं, नेताओं के भाषणों पर हंसते हैं और फिर कब इनका फन, फाइट में बदल जाता है पता ही नहीं चलता। फिर क्या जब तक चुनाव खत्म नहीं हो जाता, दोनों के बीच शीत युद्ध चलता है।
उधर ऑफिस की मीटिंग में भी कुछ इसी तरह का नजारा रहता है। सब लोग सोचते हैं कि कैबिन में बैठकर एक सीनियर बॉस अपने जूनियर के साथ टारगेट और अचीवमेंट की बात कर रहा है, लेकिन बाद में पता चलता है कि अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टी को लेकर दोनों के बीच गहमागहमी हो रही है। ऐसी स्थिति में अपने बॉस की बात मान लेनी चाहिए, नहीं तो चुनाव का रिजल्ट भले ही कुछ हो, आपका रिजल्ट जरूर खराब हो जाएगा।
मजा तो तब आता है जब ट्रेन में तीन-चार बेरोजगार सरकार की नीतियों की धज्जियां उड़ा रहे होते हैं और ऐसी चर्चा में अगर कोई सरकारी कर्मचारी धमक पड़े और सरकार की तारीफ करने लगे, तो उसकी खैर नहीं। फिर तो मारपीट को छोड़कर उसके साथ वह सबकुछ किया जाता है, जिसकी उम्मीद उसने नहीं की थी। वह आगे जाकर इस तरह की चर्चाओं में भाग न लेने की कसमें भी खाने लगता है।
वैसे चुनाव के समय उन बच्चों को राहत जरूर मिलती है, जिनके पापा डायनिंग टेबल पर हमेशा मैथ, साइंस और इंग्लिश का रिपोर्ट कार्ड लेकर बैठ जाते हैं और टेबल से ही बच्चे के भविष्य का मुल्यांकन करने लगते हैं। चुनाव के समय टीवी पर चलने वाले गरमा-गरम बहस में वह उलझे रहते हैं, तब वह बच्चे की गणित को छोड़ चुनावी गणित के बारे में बात करते हैं।
यह भारत के लोकतंत्र की खूबसूरती है, जहां हर किसी को अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है। चुनाव एक ऐसा समय होता है, जहां समाज का हर वर्ग अपने अधिकार को लेकर सक्रिय हो जाता है और अपने हिसाब से स्थिति की समीक्षा कर अपना किमती वोट देता है।