नई दिल्ली:भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में मौजूद उत्तरी सेंटिनल द्वीप, दुनिया के लिए आज भी एक रहस्य है। इसे दुनिया के सबसे खतरनाक टापू में गिना जाता है। कहा जाता है कि आज तक जिस भी बाहरी व्यक्ति ने इस टापू पर पैर रखने का प्रयास किया, वह जिंदा नहीं लौटा। भारत में एंडवेंचर ट्रिप पर आया एक अमेरिकी नागरिक जॉन एलन दिन पांच दिन पहले कुछ मछुआरों के साथ दक्षिणी अंडमान के उत्तरी सेंटिनल द्वीप पर गया था। वहां उसकी हत्या कर दी गई। इसके बाद से एक बार फिर ये भारतीय द्वीप दुनिया में चर्चा का विषय बन चुका है।
भारत का नार्थ सेंटीनल आइलैंड इतना खतरनाक है कि इसे मौत का टापू भी कहते हैं। इस टापू पर एक बेहद खतरनाक आदिवासी जनजाति रहती हैं, जिन्हें सेंटिनेलिस कहा जाता है। ये टापू इतना खतरनाक है कि भारत सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर रखा है। बंगाल की खाड़ी में चारों तरफ समुद्र से घिरे इस भारतीय टापू का हवाई नजारा बेहद खूबसूरत है। बावजूद यहां जाने के लिए आज तक कोई रास्ता नहीं है। केवल समुद्री मार्ग से ही यहां पहुंच सकते हैं।
पत्थर, तीर और आग के गोलों से करते हैं स्वागत
बताया जाता है कि इस टापू पर एक बेहद खतरनाक जनजाति रहती है, जिसने आधुनिक सभ्यता को पूरी तरह से नकार दिया है। भारत समेत पूरी दुनिया से इनका संपर्क जीरो है। बताया जाता है कि इस समुदाय के लोग, दूसरी दुनिया के लोगों से हमेशा हिंसक तरीके से ही मिले। ये लोग आसमान में नीचे उड़ने वाले हवाई जहाज या हैलिकॉप्टर का स्वागत तीरों, पत्थरों या आग के गोलों से करते हैं।
2006 में मछुआरों की हत्या की थी
ये टापू इतना खतरनाक है कि समुद्र में दूर तक जाने वाले मछुआरे भी इस टापू पर गलती से नहीं आते हैं। खबरों के अनुसार वर्ष 2006 में कुछ मछुआरे इस आइलैंड पर गलती से पहुंच गए थे। उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इससे पहले भी ये लोग टापू पर आने वाले कई लोगों के साथ जानलेवा हिंसा कर चुके हैं। काफी साल पहले इस आइलैंड पर एक कैदी जेल से भागकर पहुंच गया था। आदिवासियों ने उसे भी मार दिया था। ये लोग तीर चलाने में माहिर हैं।
लॉस्ट ट्राइब हैं ये
ये जनजाति देश-दुनिया से इस कदर कटी हुई है कि इसके बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है। किसी को नहीं पता कि इस समुदाय का व्यवहार, रिति-रिवाज, भाषा और रहन-सहन कैसा है। कहा जाता है कि ये जनजाति करीब 60 हजार सालों से यहां रह रही है। इन्हें लॉस्ट ट्राइब यानि ऐसी खोई हुई जनजाति जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। कुछ रिपोर्टों में इसे सबसे अलग-थलग रहने वाली जनजाति करार दिया गया है। इन्हें किसी तरह की दखलअंदाजी पसंद नहीं है और इनका मानव सभ्यता से कोई लेनादेना नहीं है।
भारत सरकार भी यहां हस्तक्षेप की हिम्मत नहीं करती
अब तक जितने भी लोगों ने इन तक पहुंचने का प्रयास किया और इन्हें मुख्य धारा से जोड़ना चाहा, उन्हें भी इन लोगों ने मार दिया। इस टापू पर रहने वाले आदिवासी इतने खतरना हैं कि भारत सरकार भी यहां हस्तक्षेप की हिम्मत नहीं जुटा पाती है। 2004 में आयी भयंकर सुनामी के चलते अंडमान द्वीप तबाह हो गए थे। ये द्वीप भी अंडमान द्वीपों की श्रृंखला का एक हिस्सा है। भारत सरकार ने तूफान के तीन दिन बाद इन लोगों की खोज-खबर लेने के लिए सेना के एक हैलिकॉप्टर ने आइलैंड के ऊपर उड़ान भरी। जनजाति ने उस पर पत्थर और तीरों की बरसात कर दी।
1991 में भारत सरकार ने किया प्रतिबंधित
1967 से 1991 के बीच भारत सरकार ने यहां के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए उनसे संपर्क करने का काफी प्रयास किया। लेकिन टापू के लोगों की आक्रामकता की वजह से वह अपना संदेश वहां नहीं पहुंचा सके। 91 के बाद से भारत की तरह से ऐसा की प्रयास नहीं किया। सरकार ने इस इलाके को एक्सक्लूसन जोन घोषित कर यहां किसी बाहरी शख्स के प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इनकी जनसंख्या कितनी है ये भी किसी को नहीं पता।
खेती नहीं करते, शिकार पर निर्भर
इन्होंने आज तक अपनी जमीन पर किसी बाहरी व्यक्ति को पैर रखने नहीं दिया है। इसलिए उनकी ढंग की फोटो भी उपलब्ध नहीं हैं। इनकी जो भी तस्वीर व वीडियो हैं, वह बहुत दूरी से ली गई हैं। ये दिखते कैसे हैं, ये भी रहस्य बना हुआ है। ये जनजाति इतनी पिछड़ी हुई है कि आज भी इन्हें खेती करना नहीं आता। पूरे इलाके में घने जंगल हैं। इससे अनुमान लगाया जाता है कि यहां के लोग जंगली जानवरों के शिकार और जंगल के फल खाकर पेट भरते हैं।
एक मुसाफिर की नाव पर किया था हमला
1981 में एक मुसाफिर ने इस आइलैंड के बारे में बताया था। वो अपनी नाव पर साथियों के साथ भटकते हुए इस आइलैंड के करीब पहुंच गया था। उन्होंने किनारे पर ट्राइब के कुछ लोगों को तीर कमान व भाले लेकर खड़ा देखा। नजदीक पहुंचते ही उन्होंने हमला शुरू कर दिया। ये लोग तब टापू से कुछ दूरी पर थे, लिहाजा किसी तरह वह वहां से भाग निकले।
ग्रेट अंडमानी
इनमें यहां पर रहने वाले दस अलग-अलग समुदाय शामिल है। यह अंडमान में रहते हैं। 1788-89 में पहली बार यहां पर अंग्रेजों ने यहां पर इस समुदाय के लोगों की गिनती की थी। उस वक्त इनकी संख्या करीब 6000-8000 थी। यही वजह थी उस वक्त अंग्रेज पर इस अपना अधिपत्य हासिल नहीं कर सके थे। लेकिन 1859 में अंग्रेजों ने पोर्ट ब्लेयर पर अधिकार प्राप्त कर लिया। इस दौरान उनकी ग्रेट अंडमानी लोगों से काफी कड़ा संघर्ष चला जिसको इतिहास में द अबेरदिन वार के नाम से जाना जाता है। 1901 में इनकी संख्या 625 थी।
ओंगे
छोटा अंडमान के डूगोंग क्रीक के पास रहने वाली यह जनजाति भी अन्य आदिवासी समुदायों की ही तरह जल और जंगल पर टिकी है। इनकी आबादी करीब एक हजार तक है। बदलते दौर में इस समुदाय में भी कुछ बदलाव की झलक देखने को मिली है और यह बाहरी लोगों के लिए खूंखार साबित नहीं होते हैं।
जारवा
इस समुदाय की आबादी करीब 400 तक बताई जाती है। अंडमान द्वीप पर रहने वाली यह जनजाति बाहरी लोगों से बिल्कुल कटी हुई रहती है। यह आबादी अपने लिए पूरी तरह से जंगलों और समुद्र पर निर्भर है। यह समुदाय पूरी तरह से नग्न रहता है। समुद्र से प्राप्त सीपियों और अन्य पत्थरों से बनी माला इनका आभूषण होती है। पहले ये दक्षिण-पूर्वी अंडमान मे रहते थे लेकिन अंग्रेजों की वजह से यह इस द्वीप के पश्चिम में चले गए थे। 1990 में यहां पर जीटी रोड बनने के बाद कुछ बदलाव जरूर आया है।
सेंटिनेलिस
इन तक पहुंचना लगभग नामुमकिन होता है। इस द्वीप समूह पर रहने वाला यह समुदाय पूरी दुनिया से अलग-थलग रहना पसंद करता है। 1967 में पहली बार सरकार ने इनसे संपर्क साधने की कोशिश की थी। इसके लिए उन्हें खाना, नारियल आदि चीजों को देने की कोशिश की गई थी, लेकिन आदिवासियों के नाराज होने की वजह से योजना सफल नहीं हो सकी। इतना ही नहीं वर्ष 2006 में इन लोगों ने दो मछुआरों को इसलिए मार गिराया था क्योंकि यह इनके टापू के निकट मछली पकड़ने पहुंचे थे।