टूटती सांसों के बीच जिन्दगी से संघर्ष

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बांदा|| गणतंत्र दिवस के 62वें सालगिरह पर देश भर में जहां जश्न और खुशियों का माहौल है, वहीं देश के कई हिस्सों में अभी भी कुछ ऎसे लोग हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी के लिए जी तो़ड मेहनत करनी प़डती है, तब जाकर मुश्किल से कहीं उनका पेट भरता है।

एक ऎसी ही बुजुर्ग ८५ वर्षीय महिला चंद्रकली है जो पिछले 40 साल से मोची का काम कर अपना गुजर बसर कर रही है।

सरकारी वृद्धा पेंशन से वंचित चंद्रकली जूतों के मरम्मत से रोजाना 20 से 25 रूपए की कमाई करती है। इन्हीं पैसों से उसे अपने खाने-पीने से लेकर दवा दारू का इंतेजाम करना प़डता है।
अतर्रा कस्बे के बिसंडा स़डक रेलवे क्रॉसिंग के पास फुटपाथ पर अपनी छोटी-सी दुकान में चंद्रकली बैठी मिल जाएगी।

चंद्रकली बताती है, “”पति दादूराम की 40 साल पहले बीमारी से मौत हो गई। पति भी इसी स्थान पर जूतों की सिलाई करता था। पति की मौत से वह टूट गई, लेकिन हिम्मत नहीं हारी।”” उसने बताया, “”उसका एक 60 साल का बेटा रामबाबू है जो पत्नी की बीमारी से कर्ज के बोझ में दब गया। बहू की भी मौत हो गई। कई साल हो गए, बेटा दिल्ली भाग गया है। अब उसके आगे-पीछे कोई नहीं, सिर्फ बांस की लाठी का सहारा है।””

पति से विरासत में मिले जूतों की सिलाई (मोची का काम) खाने-कमाने का जरिया है। दिन भर में 20-25 रूपये की कमाई करने वाली चंद्रकली आधा पेट भोजन कर रेल पटरी के किनारे अपने कच्चे घर में सो जाती है। अर्से से उसने दाल-सब्जी नहीं खाई। सिर्फ नमक-रोटी खाकर गुजारा करती है। पहले लहसून और प्याज की “चटनी” से काम चल जाता था, महंगाई की मार से अब वह भी नसीब नहीं है।

उसे सरकारी सुविधाओं से भी महरूम किया गया है। उसके पास किसी प्रकार का राशन कार्ड नहीं है। प़डोसियों के सामने मिट्टी के तेल के लिए हाथ पसारना प़डता है, तब कहीं जाकर शाम के समय उसके घर में थो़डी सी रोशनी होती है।

समाज कल्याण विभाग से एक साल पहले पेंशन बंधी वह भी कई महीनों से नहीं मिली। जन कल्याण की किसी योजना का लाभ उस तक नहीं पहुंचा है। समाजसेवी राजाराम यादव का कहना है, “”सरकारी तंत्र गरीब और असहायों की मदद करने में नाकाम है। चंद्रकली की हालत मानवता को झकझोरती है।”” उप जिलाधिकारी अतर्रा के.सी. वर्मा ने बताया, “”अधीनस्थों से जांच कराकर चंद्रकली को योजनाओं का लाभ दिया जाएगा।””