पोशम्पा भाई पोशम्पा, डाकिये ने घडी चुराई, अब तो जेल में जाना पड़ेगा, जेल की रोटी खाना पड़ेगा, जेल का पानी पीना पड़ेगा…. बचपन के खेल में कहीं न कहीं सत्य का आभास कराया जाता रहा है| मगर शायद प्रशासनिक अफसरों की आँख का पानी मर गया है इसलिए उन्हें इस बात की भी चिंता नहीं कि उनके खुद के बच्चे भी सवाल पूछ सकते है कि “क्या पापा जेल की रोटी और पानी ख़राब होता है?” और ख़राब होता है तो क्यों? और आप तो जिले के बड़े अफसर हो| जेल में निरीक्षण करते रहते हो| क्या आपको भी उसके खराब होने का हिस्सा मिलता है?
बड़ा प्रासंगिक सवाल है| रिश्वतखोर होना आज के जमाने में एक एडवांस कल्चर का भाग है या फिर बेशर्मी की हद| जेल में खाना ख़राब क्यों? जबकि बजट शारीरिक जरूरतों और सेहत के पैमाने के हिसाब से टैक्सपेयर के पैसे से बनाया जाता है| अस्पताल में इलाज का अभाव क्यों? दवा का बजट तो ठीक ठाक है| 31 मार्च को जिले के अफसर एक ही दिन में लाखो करोडो क्यों और कैसे ऊपर का कमा लेते है इस बात में ही जेल की खराब दाल रोटी और दवा के अभाव का राज छिपा होता है| जानते सब है| जो जेल में कर रहे है वे भी और जिन्हें जेल की निगरानी का जिम्मा दिया गया है वे भी, मगर काल्पनिक संतुष्टि के चलते मानने को तैयार नहीं|
वैसे जेल में जो सक्षम परिवार के लोग बन्द है वे तो जेल की रोटी दाल भी नहीं खाते| उनके लिए तो जेल से बाहर रोज का खाना आता है| उनके हिस्से का राशन तो अफसरों को खाने को मिल ही रहा है| जो गरीब जेल में बन्द होता है उसके हिस्से का भी राशन खा जाना “डोम’ (डोम- मृत्यु के समय मुर्दे से उसके जलने का टैक्स वसूलने वाला) होने से कम नहीं| गरीब होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है| पुलिस भी सबसे पहले उसे ही पकड़ कर अंदर कर महीनों से गैर खुलासे हुए केस खोल कर उस पर लाद कर अपनी नौकरी बचा लेती है|
तो फर्रुखाबाद की जेल में कोई पहली बार आक्रोशित उपद्रव नहीं हुआ है| कभी केंद्रीय कारागार में तो कभी जिला जेल में| जहाँ मुलाकात से लेकर मोबाइल से बात करने की वसूली का खेल चलता हो| जहाँ प्रति माह चूना डाल कर औचक निरीक्षण कर अफसर अपनी नौकरी पूरी करते रहे हो| वहां जेल में आंदोलन हो जाना, दो चार के सर फूट जाना कोई खास खबर नहीं है| खास खबर तो तब होगी जब ऐसा होना बन्द हो जायेगा| सरकार बदली है….. सरकारी अफसर और तंत्र वही है…… अगली घटना होने पर जारी….