हमें जनमत का संप्रदायीकरण नहीं करना चाहिए। सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण हमारी राजनीति की ख़तरनाक सच्चाई है, लेकिन ऐसा हर जगह किसी एक फार्मूले के तहत नहीं होता कि मुसलमान इधर गए तो हिन्दू उधर चले जाएंगे। कई बार लगता है कि जानकार मुस्लिम मतदाताओं का मज़हबी चरित्र चित्रण करते हुए गैर-मुस्लिम मतदाताओं को इशारा कर रहे होते हैं कि उन्हें वोट कहां देना चाहिए। कोशिश खूब हुई मगर नाकामयाब रही|
24 अप्रैल 2014 को फर्रुखाबाद का मतदान कतई ईमानदारी का मतदान नहीं कहा जा सकता| जिसका जैसा जहाँ प्रभुत्व चला उसने वहां अवैध बटन खूब दबाया| ये बात और है कि इस मामले में भी साइकिल वाले बाजी मार ले गए| मगर सरकारी रिपोर्टो में ईमानदारी से ही चुनाव हुआ है| पीठासीन अधिकारी से लेकर सेक्टर और जोनल मजिस्ट्रेट तक की डायरी यही कह रही है| दुबारा चुनाव ड्यूटी से हर कोई बचना चाहता है| कुछ लोगो की आस्था कुछ लोगो/जाति या सम्प्रदाय से जुडी होती है| आखिर वे भी इंसान है और हमारे बीच के ही है| उन्हें भी सोचने समझने और अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करने की आज़ादी है| दीगर बात है कि ये ऐसा करते हुए अपने पद के दायित्वों के निर्बहन में ईमानदारी नहीं बरतते|
भाजपा से शुरुआत करते है| प्रत्याशी मुकेश राजपूत के पास जनता को लुभाने के लिए कोई आदर्श या उपलब्धि नहीं थी| वे केवल अपनी जाति की लामबंदी और मोदी की लहर के आसरे चुनाव लड़ रहे थे| हालाँकि 10 साल उन्होंने जिला पंचायत अध्यक्षी सपत्नी की है| इन दस वर्षो में उन्होंने तकरीबन 300 करोड़ का बजट खर्च किया| मगर अफ़सोस कि चुनावी प्रचार में वे एक भी ऐसा आदर्श निर्माण या विकास की चर्चा नहीं कर सके जो सुर्खिया बटोर सके| हर विकास के पीछे हुए भ्रष्टाचार को सुर्खियों से बचाने का एक यही तरीका था कि किसी विकास की बिन्दुबार चर्चा नहीं की जाए| पिछली सरकारों की भ्रष्टाचार की कहानी जनता के दिलो दिमाग पर सवार थी| मोदी की लहर सुनामी में बदल गयी| हर जगह मोदी के नाम पर वोट पड़ा| लस्सी वाले की जगह चाय वाला हावी हो चला था| जमकर वोट पड़े| जो वोट विरोधियो ने दूसरो के कुनबे से अपने लिए समेटे थे उन्हें तक वोटिंग वाले दिन रखाना मुश्किल पड़ गया| गिनती करने और आंकड़े लगाने की जरुरत नहीं “फूल” खिलकर खूब फूल गया|
साइकिल वाले का चुनाव ही अनोखा लड़ा गया| विरोधी भी उसकी तारीफ कर रहे है| बसपा के खेमे में बैठा तो चर्चा हुई कि सीखना चाहिए| क्या बूथ मैनेजमेंट था| मगर कामयाब केवल अलीगंज विधानसभा तक ही था| प्रधान और कोटेदार जो जीवन भर भ्रष्टाचार करते है| जनता के हिस्से को लूटमार कर खाते है उन्हें इस्तेमाल कैसे करना है ये सीखने को मिलता है| बहुत कम खर्च का चुनाव| मगर इसमें सरकारी मशीनरी का सहयोग चाहिए होता है| प्रधान और कोटेदार पर जनसभाओ के लिए जीपे बसे ले जाने की जिम्मेदारी रहती है| तेल कोटेदार डालता है| कई कोटेदारो ने बताया कि उन्होंने “मिटटी का तेल” बोलेरो में डाला था| जिसने न नुकुर की उसका कोटा निरस्त और प्रधानी का बस्ता जमा| मगर जब हवा खिलाफ हो तब प्रधान और कोटेदार जीपे तो भेज सकते है मतदान के लिए बटन नहीं दबबा सकते| ऐसे हालत में बटन दबाने के लिए टीम चाहिए| और इन्ही टीमो का इंतजाम साइकिल वालो ने किया था| आरोप लगे है कि वोटरों को मतदान केंद्र तक ही पहुचने नहीं दिया गया| उनके वोट दूसरो ने डाल लिए| कुछ दोस्ती के कारण और कुछ भय के कारण के कारण पीठासीन अधिकारियो की डायरियो में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया| चुनाव बाद भी यही रहना है| अलीगंज में ये सब चर्चा खूब हो रही है मगर ये फंडा कायमगंज के आगे न बढ़ पाया| कायमगंज में राशन किंग कल्लू ने कोटेदारो को जमा किया था| सदर विधानसभा में अमृतपुर और सदर के प्रधानो और कोटेदारो की बैठके हुई थी| भोजपुर में भी हुई| मगर अन्दर ही अन्दर लोग राजी नहीं थे| फर्रुखाबाद की चारो विधानसभाओ में ऐसा चुनाव न लड़ा जाता है और न ही यहाँ के नेताओ की ऐसे चुनाव लड़ने की परम्परा है| वैसे समाजवादी पार्टी के जिला स्तर के नेताओ और संगठन के पदाधिकारियों की भी इस बार परीक्षा है| वैसे पर्दा तो तब उठेगा जब उनके निवास या मूल गाव के बूथों पर निकले वोटो की समीक्षा होगी| खबर है कि इन बूथों पर कैंची भी खूब चली है| एक तरह से फर्रुखाबाद लोकसभा में सपा प्रत्याशी अपने पुत्र सुबोध यादव के भरोसे पूरा चुनाव लड़ रहे थे| अलीगंज में हुए रिकॉर्ड मतदान के भरोसे अभी तक जीत का दावा वे भी कर रहे है मगर चार विधानसभाओ में मोदी लहर सब पर हावी रही है|
हाथी वाले चुपचाप चुनाव लड़ रहे थे| ये बसपा प्रत्याशी जयवीर सिंह का फार्मूला नहीं था 2014 लोकसभा के लिए मायावती का फार्मूला था| बसपा में संगठन के दिशा निर्देश माने जाते है| रणनीति सिर्फ एक व्यक्ति तय करता है| मगर फर्रुखाबाद में ये फार्मूला फेल हो जाता है| जहाँ जागरूकता और शिक्षा का स्तर ज्यादा हो वहां चुपचाप चुनाव नहीं जीता जा सकता| पूरे उत्तर प्रदेश में बड़े महानगरो को छोड़ दे तो सबसे ज्यादा अख़बार पढ़ने वाले और इन्टरनेट से लेकर टीवी मीडिया पर नजर रखने वाले फर्रुखाबाद जिले में लोग है| यहाँ एक दूसरे की बातो से ज्यादा भरोसा मीडिया पर रहता है| यही जागरूकता की निशानी है| बसपा जातियों को समेत रही थी मगर उन्ही जातियों में जो लोग जागरूक हो गए वे चले गए| वैसे बसपा का संगठन का रिकॉर्ड है कि प्रत्याशी को गुमराह करने के लिए दस्ताबेजी फर्जी आंकड़े जमा करते है| एक बार कुलदीप गंगवार को टिकेट दिलाने के लिए कुर्मियो की दोगुनी संख्या पेश कर दी थी| सत्ता में आने के बाद ही नहीं पार्टी के अन्दर भी एक किस्म का भ्रष्टाचार चलता है| प्रचार पर आने के लिए कोर्डिनेटर तक पैसे लेते थे एक चुनाव लड़ चुके करीबी मित्र नेता ने बताया था| बसपा इसी का शिकार हो गयी| मुसलमानों को लुभाने में नाकामयाब हो गयी| फ़िल्मी तमाशे बेकार चले गए| हर जाति का युवा मतदाता बसपा में टिक न पाया| अंत समय ठाकुरों का भी मोह भंग हो गया| क्षत्रियो पर सजातीय प्रत्याशी से ज्यादा पार्टी का लेवल सवार हो गया| अधिकांश ठाकुर मतदाता भाजपा प्रत्याशी को कोसते हुए भी मोदी लहर में बह गया| मुसलमान दूसरो को वोट क्यों करे जबकि उसके पास जिले का सबसे अच्छा व्यक्तित्व वाला प्रत्याशी हो| हाथी मोदी की सुनामी की लहर से उठे बबंडर में फस कर रास्ता भटक गया|
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कांग्रेस की पतवार तो उसके खेवनहार ही ने ले डुबोई| सलमान हमेशा की तरह चुनाव लड़ रहे था| लम्बे काफिले लेकर वे तब भी नहीं चले थे जब जीते थे| माहौल तो बना मगर उसे कैश करने वाली उनकी अपनी निजी मशीनरी फेल हो गयी या कहे कि अपने पिछले चुनाव की हार का बदला लेने के लिए गोता लगा गई| सलमान का कोई विरोध नहीं था| जो था वो प्रभावशाली नहीं था| जो बटोर वोट हर मदतान केंद्र पर सलमान खुर्शीद के लिए पड़ता था वो इस बार मोदी की लहर समेत ले गई| बस इतनी सी बात है| बसते सभी लगाते है उन्होंने भी लगवाये| बस्तों में पैसे सभी रखते है उन्होंने भी रखवाए| देश भर में कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल के बाबजूद सलमान ने फर्रुखाबाद से ही चुनाव लड़ा ये यादगार रहेगा| अब सलमान चुनावी परिणाम में जहाँ रहेंगे वहां रहेंगे मगर उनकी वजह से जो दूसरो के चुनावो में लाभ हानि हुई उसका आंकलन भी जरुरी है| क्योंकि कमल कैसे खिल सकेगा इसका जिक्र किये बिना समीक्षा अधूरी है| चुनाव आयोग में पहुच या रिश्तो के आरोप जो लगते है वे कोरे झूठे नहीं है| मगर इसमें बुरा क्या है| कोई नेता थानेदार या मास्टरों से दोस्ती रखता है तो कोई देश के उच्च पदों पर बैठे हुए लोगो से| अपनी अपनी पहुच और व्यक्तित्व की बात है| सलमान की बात चुनाव प्रभावशाली था ढंग से रखी गयी और सुनी गई| इसका मतलब ये नहीं कि चुनाव आयोग ने पक्षपात किया| इसे एक कवि की दो लाइनों से समझ सकते है-
“‘आम’ चुनाव का अपना अपना तरीका है”
वे “पाल” के लेते है और हम “डाल” के लेते है|
अब बात कैची की कर लेते है| जिसका इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण योगदान है| मंत्री सतीश दीक्षित ने मोहमदाबाद में मुलायम की सभा में कहा था कि “दरजी और कैंची का जोड़ नहीं होता”| उनका आशय था कि दरजी सिलता है और कैंची का काम काटना होता है| शायद सत्ता के चश्मे से शब्दों को पिरोने में कुछ भूल हो गयी| आखिर एक दरजी बिना कैंची के कैसे थान (कपडे) को पहनने लायक बना सकता है? यानि की दरजी और कैंची का बेजोड़ मेल है| कैंची भी इस चुनाव में यही काम कर रही थी| सभी के थानों से थोडा थोडा कपडा (वोटर) काट अपने डिजाइनर सूट के लिए तैयारी कर रही थी| कामयाब भी हुई| सचिन यादव की “कैंची न चली होती तो फूल को साइकिल ने कुचल ही डाला था”| कैसे और क्यों इसका विश्लेषण वोटो के खुलने के बाद करेंगे| क्योंकि तब तक कोई भी व्यक्ति जो किसी पार्टी के साथ आस्था रखता हो न यकीन नहीं करेगा और न ही मानेगा| सचिन सिंह का भी दावा है कि अभी भी लोग उन्हें हलके में न ले, जीत उन्ही की है| सचिन को वैस भी दो प्रकार की जात का भरोसा है| सचिन कहते है कि उसकी लडाई अपराध मुक्त और भ्रष्टाचार मुक्त चुनाव की है और वो इसमें जीत गया है| कहीं सलमान की तरह बटोरा (हर बूथ पर कुछ न कुछ वोट) उन्हें भी वोट मिला हो तो कोई आश्चर्य की बात न होगी| यकीन तो लोगो ने वोटो के खुलने से पहले दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के लिए भी नहीं किया था| किसी का पहला चुनाव बहुत कुछ ऐसे ही होता है| कैंची की वहज से ही साइकिल के वो फंडे फर्रुखाबाद की विधानसभाओ में कामयाब नहीं हो पाए जो अलीगंज में हो गए| लाभ किसी को मिला हो ये दीगर बात है मगर अगर फूल जीता तो उसे कैंची का एहसानमंद होना चाहिए| बाकी तो 16 मई 2014 को साफ़ होगा की 22 में से किसके गले में हार होगा|