घटिया किताबें सप्लाई करने वाले प्रकाशकों के मंसूबे ध्वस्त

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corruptionलखनऊ : परिषदीय स्कूलों में घटिया किस्म की पाठ्यपुस्तकों की आपूर्ति कर भ्रष्ट सरकारी तंत्र के गठजोड़ से रोकी गई धनराशि का भुगतान हासिल करने की पेशबंदी में जुटे प्रकाशकों के मंसूबे ध्वस्त हो गए हैं। नियम के विपरीत अपनायी गई प्रक्रिया की आड़ लेने वाले प्रकाशकों को बेसिक शिक्षा विभाग ने रोकी गई तकरीबन दस करोड़ की धनराशि का भुगतान करने से मना कर दिया है। प्रकाशकों का भुगतान रोके जाने के प्रस्ताव पर बेसिक शिक्षा मंत्री राम गोविंद चौधरी ने मुहर लगा दी है।

मामला वर्ष 2010-11 में परिषदीय स्कूलों में पाठ्यपुस्तकों की आपूर्ति से जुड़ा है। किताबों की आपूर्ति होने पर शिकायतें मिलीं कि प्रकाशकों ने किताबों के प्रकाशन में घटिया कागज का इस्तेमाल किया है। जब बेसिक शिक्षा विभाग ने सहारनपुर स्थित केंद्रीय लुगदी कागज अनुसंधान संस्थान से जांच करायी तो 30 में से 29 प्रकाशकों द्वारा आपूर्ति की गई किताबों के नमूने परीक्षण में फेल हो गए। जांच में घटिया किस्म की किताबों की आपूर्ति प्रमाणित होने पर प्रकाशकों को भुगतान की जाने वाली धनराशि में से लगभग दस करोड़ रुपये की कटौती कर ली गई। काटी गई धनराशि का भुगतान प्रकाशकों को कराने के लिए हथकंडा अपनाया गया। तत्कालीन बेसिक शिक्षा मंत्री धर्म सिंह सैनी की अध्यक्षता में हुई बैठक में यह तय हुआ कि किताबों की नमूनों की जांच इलाहाबाद के राजकीय मुद्रणालय से करा ली जाए। जबकि किताबों की गुणवत्ता की जांच के संबंध में विभाग की ओर से जो शासनादेश जारी किया गया है उसमें राजकीय मुद्रणालय को यह अधिकार ही नहीं है। बहरहाल मंत्री और उस समय विभाग के एक आला अधिकारी के दबाव में किताबों की नमूनों की जांच राजकीय मुद्रणालय से करायी गई। जैसा कि अंदेशा था, राजकीय मुद्रणालय ने प्रकाशकों द्वारा आपूर्ति की गईं किताबों को जांच में सही ठहरा दिया।
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प्रकाशकों को रोकी गई धनराशि का भुगतान हो पाता इससे पहले सूबे में सरकार बदल गई। रुकी हुई धनराशि का भुगतान हासिल करने के लिए प्रकाशकों ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाई कोर्ट ने बेसिक शिक्षा विभाग से मामले को निस्तारित करने के लिए कहा। दोनों संस्थाओं से करायी गई जांच के बारे में बेसिक शिक्षा विभाग ने केंद्र सरकार के औद्योगिक नीति एवं प्रोत्साहन विभाग से रिपोर्ट मांगी। औद्योगिक नीति एवं प्रोत्साहन विभाग ने केंद्रीय लुगदी कागज अनुसंधान संस्थान की जांच को सही ठहराया लेकिन उसने राजकीय मुद्रणालय की जांच पर कोई टिप्पणी नहीं की। इस बीच मामले की छानबीन करने में जुटे विभागीय अफसरों को पता चला कि राजकीय मुद्रणालय को तो किताबों की गुणवत्ता की जांच करने का अधिकार ही नहीं है। इस आधार पर विभाग ने प्रकाशकों की रोकी गई धनराशि का भुगतान न करने का फैसला किया है।