नई दिल्ली: बुकर प्राइज से सम्मानित लेखिका और मानवाधिकार के मुद्दे पर मुखर होकर बोलने वालीं अरुंधति रॉय ने संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी पर सरकार को लताड़ा है। उन्होंने कहा कि अफजल को न्याय नहीं मिला और उसे आनन-फानन में फांसी पर चढ़ा दिया गया। अरुंधति ने भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल और सुप्रीम कोर्ट में सीनियर वकील के उस बयान का भी हवाला दिया, जिसमें उन्होंने अफजल गुरु की फांसी को हड़बड़ी में छिपाकर लिया गया फैसला करार दिया था। अरुंधति राय के बयान के विरुद्ध कई राजनैतिक दलों ने विरोध प्रारंभ कर दिया है।
अरुंधति ने कहा कि फांसी पर लटाकाए जाने से पहले सुप्रीम कोर्ट ने कई बैठकों में ऐसे कैदियों की सुनवाई सुनवाई पूरी की थी जो लंबे समय से जेल में थे। उन्हीं मुकदमों में से अफजल गुरु का भी एक मुकदमा था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था। लेकिन अफजल गुरु मामले में न्यायिक प्रक्रिया को अनदेखी कर उसे फांसी पर लटका दिया गया। अरुंधति ने कहा कि आज की तारीख में अफजल का शव भी सरकार के कब्जे में है। उसे डर है कि अफजल कश्मीर में हीरो बन जाएगा।
अरुंधति रॉय ने ‘द हैंगिंग ऑफ अफजल गुरु’ नाम की किताब में भूमिका लिखी है- अफजल गुरु को फांसी देने से पहले सरकार ने मीडिया में एक स्लोगन चलवाया कि अफजल ने लोकतंत्र पर हमला किया था। अरुंधति आगे कहती हैं, चलिए हम मान लेते हैं कि भारतीय संसद पर हमला लोकतंत्र पर हमला था। तो फिर 1983 में 3,000 अवैध बांग्लादेशियों का नेली नरसंहार लोकतंत्र पर हमला नहीं था?
1984 में दिल्ली की सड़कों पर 3,000 से ज्यादा सिखों की हत्या लोकतंत्र पर हमला नहीं था? 1992 में बाबरी मस्जिद पर हमला क्या भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? 1993 में मुंबई में शिव सैनिकों के नेतृत्व में मुसलमानों की हत्या क्या लोकतंत्र पर हमला नहीं था? गुजरात में 2002 में स्टेट प्रायोजित मुसलमानों की हत्या क्या लोकतंत्र पर हमला नहीं था? इन मामलों में तो प्रत्यक्ष और परिस्थितिजन्य, दोनों तरह के सबूत हैं जिसमें बड़े पैमाने हुए नरसंहार में हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं के तार जुड़े हैं। लेकिन 11 साल में क्या हमने कभी इसकी कल्पना तक की है कि उन्हें अरेस्ट भी किया जा सकता है। फांसी पर चढ़ाने की बात तो छोड़ ही दीजिए।