यक्ष- सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर – हर अधिकारी भ्रष्ट है किन्तु हर अधिकारी केवल अपने को ईमानदार और दूसरों को भ्रष्ट कहता व मानता है। इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है?
यक्ष- भ्रष्टाचार की परिभाषा क्या है?
युधिष्ठिर- ’’बिनु पग चलै सुनै बिनु काना’’।
’’कर बिनु कर्म करै विधि नाना’’।।
यह भ्रष्टाचार की परिभाषा है। यह सर्वत्र है, अनन्त है, यह सत्यं शिवं सुन्दरम् है। इसे देश काल की सीमा बांध नहीं सकती, इसीलिए यह अजर व अमर है, यही ब्रम्हा है। माया से आच्छादित प्रत्येक अधिकारी की आत्मा में यह प्रतिबिंबित, प्रकाशित व विद्यमान है। अधिकारी भ्रष्टाचार रूपी ईश्वर का अंश है- ’’ईश्वर अंश भ्रष्ट अधिकारी’’।
यक्ष – भ्रष्टाचार कितने प्रकार का होता है?
युधिष्ठिर- यह चार प्रकार का होता है- नैतिक भ्रष्टाचार, अनैतिक भ्रष्टाचार, परानैतिक भ्रष्टाचार व अध्यात्मिक भ्रष्टाचार।
यक्ष – इसकी व्याख्या करो युधिष्ठिर।
युधिष्ठिर- भ्रष्टाचार पूर्वी- पश्चिमी सभी देशों में व्याप्त है। पश्चिमी देशों में भ्रष्टाचार फल में है, किन्तु हमारे पूर्वी देश में भ्रष्टाचार बीज (कर्म) में है। उदाहरणार्थ- अगर कोई व्यक्ति एक किलो चना बो कर उससे सौ किलो चना पैदा करता है तो पश्चिमी देश का आदमी सौ किलो उत्पाद में एक किलो की चोरी करता अथवा खाता है और अपने देश के लिए 99 किलो चना छोड़ देता है, जबकि भारत का आदमी एक किलो बीज ही खा जाता है, जिससे देश व समाज को कुछ भी नहीं बचता है। दोनो एक-एक किलो खा रहे हैं, किन्तु पश्चिम का आदमी खाकर भी देश की सेवा कर रहा है, अतः भ्रष्टाचार नैतिक भ्रष्टाचार है। हमारे देश का आदमी जब खाता है तो देश व समाज को कुछ नहीं बचने देता, इसलिए यह अनैतिक भ्रष्टाचार है। हम भारत के लोग फल इसलिए नहीं खाते क्योंकि हम फल में विश्वास ही नहीं करते, अपितु कर्म (बीज) में विश्वास करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी आशय का उपदेश हमें दिया है कि- ‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन्’’।
जो भ्रष्टाचार न नैतिक है और न अनैतिक, उसे परानैतिक भ्रष्टाचार कहते हैं। जैसे घूस लेकर मुकदमें में सही फैसला कर देना, मरे हुए रिश्तेदारों की बदबूदार लाशों को सरकारी वाहनों से शमशान घाट तक ले जाना और सरकारी खजाने से तेल भरवाना। इसके अतिरिक्त जातिवाद, भाई- भतीजावाद, क्षेत्रवाद के उन्माद में किये गये समस्त कर्म भी इस परानैतिक भ्रष्टाचार की परिधि में आते हैं।
अन्तिम श्रेणी का भ्रष्टाचार अत्यन्त सुखकर और कई जन्मों तक समृद्वि प्रदान करने वाला है, जो समाज के अग्रणी और परम समर्थ लोगों को शोभा देता है। इसका सर्वसुलभ उदाहरण है- विदेशी बैंकों, विशेष रूप से स्विज बैंक में जमा करना, ताकि अचानक मृत्यु होने पर नरक में वह पैसा काम आये। इस नीयत से जो अन्य ज्ञात/अज्ञात दुस्साहसपूर्ण कार्य किए जाते हैं, उसे अध्यात्मिक भ्रष्टाचार कहते हैं।
यक्ष- कमीशन और चन्दे में क्या अन्तर है?
युधिष्ठिर- अधिकारी कमीशन से नियुक्त होकर आता है, इसीलिए अधिकारी जब घूस लेता है तो कमीशन कहते हैं, और नेता चूंकि चुनकर आता है इसलिए जब नेता घूस लेता है तो उसे चन्दा कहते हैं।
यक्ष- वसुधैव कुटुम्बकम् क्या है?
युधिष्ठिर- विश्व बैंक से पोषित विभागों में पोस्टिंग कराकर अधिकारी द्वारा उदार दिल से कुटुम्बवत् जो सेवा की जाती है उसे वसुधैव कुटुम्बकम् कहते हैं। विभागों में अधिकारी कुटुम्ब का मुखिया होता है और वह कुटुम्ब के प्रत्येक सदस्य से बन्दर बांट करके जब खाता है तो कुटुम्ब भी सुखी और वह भी सुखी रहता है। यही हमारी भारतीय संस्कृति है कि ऊपर से नीचे तक सब लोग मिलकर शान्तिपूर्वक खायें।
यक्ष- जवाहर ग्राम समृद्वि योजना व सम्पूर्ण रोजगार योजना क्या है?
युधिष्ठिर – यह भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण है। शासन के सामने कई दशक तक यह विवाद लम्बित रहा कि राष्ट्रीय हित में अधिकारी को खाने का अधिकार होना चाहिए या पंचायत प्रधानों को ही खाने का अधिकार दिया जाना उचित है। जब अधिकारी खाता है तो वह पैसा महानगरों में विनियोजित होता है क्योंकि वह राज प्रसाद बनवाता है तथा शराब, शवाब, तस्करी, विदेशी मुद्रा, शेयरों में पैसा लगता है। इस प्रकार अधिकारी के खाने से भ्रष्टाचार का गांव से शहर की ओर पलायन (माइग्रेशन) होता है। परिणाम स्वरूप शहरों में प्रदूषण फैलता है। दूसरी ओर जब प्रधान पकाता- खाता है तो वह उससे ट्रैक्टर खरीदता है, भैंस खरीदता है, गांव में ट्यूबवेल लगवाता है, खाद, बीज खरीदता है, गांव में घर बनवाता है। इस प्रकार अनजाने ही वह गांव का विकास करता है। यह विकास कार्य पंचायत प्रधान भले ही कमीशन के पैसे से करें, किन्तु उसका यह कर्म शासन की मंशा के अनुरूप ठहरता है, यही योजनाओं का उद्देश्य भी है जाहिर है कि पंचायत प्रधान का खाना विकास परक है, जबकि अधिकारी का खाना विनाश परक है।
पंचायत प्रधान के खाने से गांव का पैसा गांव में व जिले का पैसा जिले में रहता है और अधिकारी के खाने से जिले व गांव दोनो का पैसा दिल्ली, बम्बई, न्यूयार्क, स्विटजरलैण्ड, इग्लैण्ड चला जाता है।
सम्पूर्ण रोजगार योजना में, 50 प्रतिशत धनराशि ग्राम पंचायतों को 30 प्रतिशत धनराशि क्षेत्र पंचायतों का 20 प्रतिशत धनराशि जिला पंचायतों को आवंटित की जाती है। चूकि जनपद में ग्राम पंचायतों की संख्या सबसे अधिक होती है तथा उसके बाद क्षेत्र पंचायतों की संख्या होती है तथा एक जिला पंचायत होती है। संख्या/जनसंख्या के आधार पर तीनों पंचायतों को खाने के लिए उसी क्रम व अनुपात में 50 प्रतिशत, 30 प्रतिशत, 20 प्रतिशत की धनराशि की जाती है। यह कारनामा विश्व के दुर्लभ आर्थिक आरक्षण का भी अच्छा उदाहरण है।
यक्ष- भ्रष्टाचार का आकार क्या है?
युधिष्ठिर- यह नाना प्रकार हैं, किन्तु व्याप्ति इसका निश्चित धर्म है। जिस प्रकार तेजस्वी सूर्य समुद्र में, नदी में, तालाब में, बाल्टी के पानी में, सभी जगह दिखाई पड़ता है उसी प्रकार विकास के समस्त आकार प्रकार में भ्रष्टाचार दिखाई पड़ता है। यह आकाश की तरह अनन्त है। आकाश जिस तरह घड़े के भीतर घड़ाकार, गिलास के भीतर गिलासकार और लोटे के भीतर लोटाकार दिखाई पड़ता है उसी प्रकार विभाग व व्यक्ति के अनुरूप भ्रष्टाचार छोटे से छोटा व बड़े से बड़ा रूप धारण कर लेता है।
यक्ष- युधिष्ठिर मैं तुमसे प्रसन्न हुआ। वर मांगो।
युधिष्ठिर- मुझे अगले जन्म में अधिकारी बना दिया जाय।
यक्ष- तथास्तु!
अधिकारी होने के समस्त गुण तुझमें विद्यमान हैं युधिष्ठिर। जुआ खेलने में तुम माहिर हो। अपनी पत्नी तक को दांव में लगाने का तुझमें नैतिक साहस है। पत्नी का चीर हरण देख करके भी तुम्हारी मरी हुई आत्मा का सड़ा हुआ संयम व लालची विवेक पूर्ववत् स्थिर रहता है, लिप्सा से सनी हुई तुम्हारे धैर्य की सीमा कभी नहीं टूटती है। झूठ बोलने में भी दक्ष हो। शंख ध्वनि के राजनैतिक प्रदूषण में ‘‘अश्वत्थामा हतो हत:, नरो वा कुंजरो’’ जैसा झूठ बोलकर धूर्ततापूर्वक अपने गुरु द्रोणाचार्य का वध भी करा सकते हो। बहुरुपिया बनकर छद्मवेश में राजा विराट के यहां नौकरी भी कर सकते हो। बालू (माइन्स) से भी तेल निकालने में तुम दक्ष हो। तुम उपभोगवादी संस्कृति के पोषक हो। एक नारी को मिलकर सामूहिक भोग करने के तुम अनुयायी हो। चालाक भी हो। कंटकाकीर्ण जटिल समस्याओं के चक्रव्यूह में तुम कभी नहीं फंसते। अबोध अभिमन्यु को उस चक्रव्यूह में फंसाकर उसका वध करा देते हो। इस प्रकार संवेदनहीन होते हुए भी टैक्टफुल हो। अपने स्वार्थ, अपने निजी सुख, अपनी सुविधा, अपने पद के लिए तुम अपने भाई, गुरू, बन्धु-बान्धवों किसी को भी बलि का बकरा बना सकते हो। निकृष्ट होते हुए एवं सारे दुर्गुणों की खान होते हुए भी स्वार्थवश, भयवश अज्ञानतावश लोग तुम्हें ‘‘धर्मराज’’ कहते हैं। इसलिए तुम्हें तत्काल अधिकारी बनाने का आदेश पारित किया जाता है।
नोट- महाकाव्य महाभारत में ‘यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ नाम से एक पर्याप्त चर्चित प्रकरण है। यहां पर दिये गये व्यंग का मूल प्रकरण से कोई संबंध नहीं है। वर्तमान में सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर यह एक व्यंगात्मक चोट है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह व्यंग लेख फर्रुखाबाद जनपद में तैनात रहे और वर्तमान में प्रदेश में जिलाधिकारी के पद पर कार्यरत एक अधिकारी द्वारा उनकी तत्कालीन तैनाती के दौरान लिखा गया था। जवाहर ग्राम समृद्वि योजना व सम्पूर्ण रोजगार योजना उस समय की काफी चर्चित योजनायें थीं।