दीये बिक्री हो तभी तो मने अंशिका की दीवाली

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फर्रुखाबाद :(दीपक-शुक्ला)अब से ढाई दशक पहले दीपावली के त्योहार पर लोग मिट्टी के दीये से घर को रोशन करते थे लेकिन धीरे-धीरे इनका स्थान अब बिजली की झालरों और रंगबिरंगी मोमबत्तियों ने ले लिया है। जिसके चलते मिट्टी के दीये सगुन बनकर रह गये हैं। लोग पूजा पाठ में ही इनका प्रयोग करते हैं। मिट्टी के दीयों की मांग कम होने का प्रभाव इनको बनाने वालों पर भी पड़ा है। उनकी न सिर्फ आमदनी कम हुई है बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता रोजी रोटी पर संकट भी मंडराने लगा है। इससे मिट्टी के बर्तन बनाने वाले मायूस हैं।
दीवाली पर टकटकी लगाये नन्ही अंशिका अपने छोटे भाई सूरज व पिता रामकिशोर के साथ ग्राहकों का इंतजार इस बात से कर रही है कि उसके दिये बिक्री हो तो घर में दीवाली मने| 60 वर्षीय रामकिशोरी भी ग्राहकों का इंतजार केबल इस आस में कर रही है कि कुछ बिक्री हो चार पैसे ए तो बिटिया के हाथ पीले कर सके| लेकिन चाइना की झालरों ने उनकी उम्मीद की किरण को अँधेरे में धकेल दिया है| पहले लोग हर शुभ कार्य में मिट्टी के बर्तनों का ही प्रयोग करते थे। खासतौर पर दीपावली के त्योहार पर मिट्टी के दीयों से ही घर को रोशन करते थे। दीपावली का त्योहार आने के दो महीना पहले से ही मिट्टी के बर्तन बनाने वाले दीया बनाने में जुट जाते थे ताकि समय से वह बिक्री कर सकें। वक्त बदलने के साथ ही दीयों का क्रेज कम होने लगा। लोगों के आकर्षण का केंद्र बिजली की रंगबिरंगी झालरें और मोमबत्तियां बन गईं। त्योहार पर अब लोग सगुन के तौर पर दीया लेते हैं। दीयों की मांग कम होने से मिट्टी के बर्तन बनाने वालों को खासा नुकसान हुआ है। आहिस्ता-आहिस्ता इनकी रोजी रोटी पर संकट मंडराने लगा है|
खरीदकर लाते मिट्टी
मिट्टी के बर्तन बनाने वाले अखिलेश प्रजापति ने बताया कि अब मिट्टी मुफ्त नहीं मिलती है बल्कि खरीदकर लानी पड़ती है। जिले हर जगह पर बर्तन बनाने योग्य मिट्टी नहीं मिलती है। जिससे दूर दराज गांवों से खरीदकर लाना पड़ता है। मिट्टी लाने में ही काफी खर्च आ जाता है।एक ट्राली लगभग एक हजार रूपये की मिलती है|
महंगाई के बाद भी दीये सस्ते
60 वर्षीय रामकिशोरी नई बस्ती में दिये बनाती मिली| उन्होंने बताया कि महंगाई भले ही हो लेकिन मिट्टी के दीये अभी भी उतने महंगे नहीं हुए हैं। बीस रुपये के पच्चीस मिल जाते हैं। इससे अधिक की लोग खरीददारी नहीं करते हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने वालों का कहना है कि थोड़ा भी महंगा हो जाएगा तो लोग खरीदेंगे नहीं।
अच्छा लगता था दीये रोशन करना
गोपाल मिश्रा निवासी रेलवे रोड ने बताया कि बचपन में जब भी दीपावली का त्योहार आता था तो गांव में बर्तन बनाने वाले के यहां से सबसे पहले मिट्टी के दीये मंगाये जाते थे। उनको पानी में डाल दिया जाता था ताकि तेल कम लगे। मिट्टी के दीपक वास्तव में बहुत अच्छे लगते थे। अब तो सिर्फ कहने भर को रह गया है। पहले दीपावली के त्योहार के नजदीक आते ही सरसों के तेल की घानी पिरवा ली जाती थी। महिलाएं रुई की बत्तियां बनाती थीं।
दीपक जलते थे तो त्योहार का मजा ही अलग आता था।
अंकुर दुबे ने बताया की मिट्टी का पात्र शुद्ध माना जाता है। इसकी वजह से पहले लोग हर तीज त्योहार पर मिट्टी के बर्तन ही प्रयोग करते थे लेकिन अब समय बदल गया है। मिट्टी के दीयों के स्थान पर लोग झालरें लगाते हैं। इनमें वह बात नहीं जो मिट्टी के दीयों में होती थी। मिट्टी के दीये रोशन करने से माना जाता था कि इससे कोई नुकसान नही होता है। सरसों के तेल के दीपक जलते थे इनको शुभ माना जाता रहा है। अब लोग मोमबत्ती जलाने लगे हैं। बच्चों के जन्मदिन तक में लोग मोमबत्ती का प्रयोग करते हैं।