अखिलेश यादव ने 15 मार्च 2012 को सूबे की कमान संभाली थी। इस सरकार ने अपने कार्यकाल का एक साल पूरा कर लिया है। ये एक साल अखिलेश के लिए उतार चढ़ाव भरे रहे।
कुछ मोर्चों पर अखिलेश ने बेहतर किया तो कुछ पर वह लगभग फेल रहे। यहां हम अखिलेश के कार्यकाल के पांच ऐसे पहलुओं की चर्चा कर रहे हैं, जिनमें उन्हें पर्याप्त सफलता नहीं मिली-
मंत्रियों की मनमानी
15 मार्च, 2012 को अखिलेश यादव के साथ 39 मंत्रियों ने शपथ ली। भयमुक्त शासन का नारा देकर सत्ता में आई सपा ने मंत्रिमंडल में बाहुबली विधायक राजा भैया और पंडित सिंह को भी जगह दी, जबकि विधानसभा चुनावों से पहले डीपी यादव को पार्टी में शामिल न कर उन्हें दबंग नेताओं से दूर रहने का संदेश दिया था।
इन मंत्रियों के कामकाज और इनकी मनमानी से अक्सर विवाद होते रहे। कुंडा विधायक राजा भैया का नाम क्षेत्राधिकारी जिया उल हक की हत्या में आया, जिसके बाद सरकार ने बदनामी से बचने के लिए उनका इस्तीफा ले लिया।
सरकार बनने के कुछ दिनों बाद ही राजस्व राज्य मंत्री विनोद सिंह उर्फ पंडित सिंह ने चिकित्सा विभाग की भर्तियों में मनमानी करने की कोशिश की। उन पर सीएमओ के अपहरण का आरोप लगा, जिसके बाद उन्हें मंत्री पद से हटा दिया गया। हालांकि दोबारा हुए मंत्रिमंडल विस्तार में उन्हें मंत्री बना दिया गया।
अखिलेश सरकार के वरिष्ठ मंत्री आजम खां और शिवपाल यादव ने अपने बयानों के कारण भी अखिलेश सरकार की कई बार किरकिरी कराई।
लॉ एंड ऑर्डर
कानून व्यवस्था के मुद्दे पर अखिलेश सरकार लगातार निशाने पर रही। कानून-व्यवस्था को लेकर सरकार की कोशिशों का असर शहरों, कस्बों और गांवों की जमीन पर नजर आने के बजाय कई बार हालात बेकाबू नजर आए और सरकार बेबस व लाचार दिखी।
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कोई उल्लेखनीय कमी नजर नहीं आई। सरकार के लिए यह गनीमत रही कि एक साल के भीतर निघासन और बांदा जैसी घटनाएं नहीं हुईं, लेकिन टांडा से लेकर कुंडा में ताजा वारदात से सरकार की साख पर सवाल तो खड़े हुए ही हैं।
इतना ही नहीं, अखिलेश सरकार के 12 महीने के कार्यकाल में सांप्रदायिक दंगों की भरमार लग गई है, जबकि पिछली सरकार के दौरान ऐसे मामलों पर काफी हद तक अंकुश रहा था।
प्रदेश में कानून-व्यवस्था के स्तर पर सुधार को लेकर कई तरह की कवायदें हुईं। डीजी-आईजी से लेकर एसपी-डीएसपी और थाने स्तर पर भारी तबादले हुए लेकिन इन तबादलों की वजह से आपराधिक वारदात में कोई ऐसा सुधार, बदलाव नहीं दिखा जिसे महसूस किया जा सके।
बिजली
ऊर्जा क्षेत्र में सरकार के एक साल के कामकाज पर बात करें तो हमारे पास कहने के लिए कुछ खास नहीं है। इस समय प्रदेश में औसतन 2000 से 2500 मेगावाट बिजली की कमी है।
पावर कॉर्पोरेशन की खस्ताहाली और बिजली की कमी के चलते किसानों को मुफ्त बिजली देने का वादा भी पूरा नहीं हो पा रहा है।
कागजों पर उद्योगों को 24 घंटे बिजली मिल रही है, लेकिन हकीकत में बिजली की मार से उद्योग-धंधे बेहाल हैं। तहसील स्तर के नगरों को ज्यादा बिजली देने के मकसद से अलग उपकेंद्रों के निर्माण की योजना को जरूर सरकार की उपलब्धि माना जा सकता है, लेकिन उपभोक्ताओं को इसका फायदा मिलने में अभी कम से कम एक साल और लगेगा।
उद्योग
सूबे में औद्योगीकरण और निवेश के लिहाज से अखिलेश यादव सरकार का एक साल उत्साहजनक नहीं है। हालांकि इस अवधि में आधा दर्जन से अधिक नई नीतियां जारी की गईं।
अखिलेश यादव ने प्रदेश में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए आगरा समिट की। इसके बाद नीदरलैंड, अमेरिका, सऊदी अरब सहित कई विदेशी कारोबारी प्रतिनिधिमंडलों ने यूपी का दौरा किया, जिसके बाद उम्मीद है कि प्रदेश में विकास की बात हो।
हालांकि कानून-व्यवस्था और प्रशासनिक माहौल दुरुस्त किए बिना महज गोष्ठी और भाषण से निवेश लाना आसान नहीं है।
कृषि
अखिलेश सरकार ने किसानों से कई वादे किए थे लेकिन कुछ पूरे हुए, कुछ अब भी अधूरे हैं। सरकार ने गन्ना किसानों को 15 दिन में बकाया मूल्य भुगतान का वादा किया था, जो पूरी तरह जमीन पर नहीं उतर पाया। बकाया गन्ना मूल्य भुगतान को लेकर मेरठ मंडलायुक्त कार्यालय पर धरना चल रहा है।
विधानसभा में गन्ना व चीनी से संबंधित बजट पर चर्चा के दौरान विधायकों ने जिस तरह पर्ची वितरण में धांधली और चालू सत्र के भी गन्ना बकाया मूल्य भुगतान न होने की बात उठाई, उससे भी पता चलता है कि इस मोर्चे पर भी सरकार को अभी काफी काम करना बाकी है।
चुनाव में सपा ने किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए एक आयोग के गठन की बात कही थी, जो अभी तक नहीं बन पाया।
65 साल की आयु पूरी कर चुके किसानों को पेंशन देने की योजना भी जमीन पर नहीं उतर पाई है। किसानों को अच्छे बीज मुहैया कराने का काम आगे तो बढ़ा है, पर अभी इसमें काफी कुछ करने की गुंजाइश है।