कुकरमुत्ते से उग रहे कान्वेंट स्कूल

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Editorहिंदुस्तान का आदमी जिसे कुकरमुत्ता कहता है, अंग्रेजी में उसे मशरूम कहा जाता है| हिंदी में कुकुरमुत्ता का संधि विच्छेद कुकर+मुत्ता करके पढ़ा जाता है| कुकुर यानि कुत्ता और मुत्ता को कुत्ते के मूत्र त्याग से परिभाषित किया जाता है| यानि जहाँ कुत्ते ने मूत्र त्याग दिया एक सफ़ेद छातानुमा कुछ उग आया जिसे आम ग्रामीण भासा में कुकुरमुत्ता कहते रहे| ऐसा क्यूँ कहा जाता था? पता नहीं मगर ये कहीं न कहीं भारतीयों की अंग्रेजो के प्रति घ्रणा भाव को दर्शाता है| कुकुरमुत्ता को अंग्रेजी भाषा में मशरूम कह कर सम्बोधित करते है|

हिंदुस्तान में कुदरत ने खाने को इतना कुछ दिया है कि उन्हें खाने के लिए फंगस की जरुरत नहीं पड़ती| पाश्चात्य देश जहाँ धूप और गर्मी की कमी रहती है, फंगस यानि कवक यानि फंफूदी आधारित ज्यादा भोजन खाया जाता है| डबलरोटी, ब्रेड, और बेकरी के फ़ूड पाश्चात्य खाना है| भारत में इन सब का प्रचलन भी बाहरी देशो के भारत पर सत्ता करने के दौरान ही आया| बहुत वर्षो तक इन सबका खाना एक खास जमात की पहचान हुआ करती थी| भारत का आम आदमी अंग्रेजी माध्यम के कान्वेंट सन्स्कृति आधारित स्कूलों में बच्चो को पढ़ाना और खमीर या फंगस आधारित भोजन खाना पसंद नहीं करता था| और तब इन सबको अपनाने वाले समाज में एक खास पहचान रखते थे| सब ये बीते ज़माने की बात हो चली है| मशरूम यानि भारतीय कुकुरमुत्ता और कान्वेंट स्कूल आम आदमी के जेहन से लेकर किचन तक पहुच गया है|

अंग्रेज, रजवाड़े, जमींदार या अंग्रेजी हकूमत में सरकारी बड़े अफसर (भारतीय) ही अपने बच्चो को कान्वेंट स्कूलों में पढ़ाते थे| तब अंग्रेजी एक ताकतवर भाषा होती थी| भारत के स्कूलों में इसे घुसने में काफी समय लग गया| पहले भारतीय पद्यति पर आधारित स्कूलों में अंग्रेजी का प्रवेश कक्षा 6 से कराया गया| बढ़िया व्याकरण, शुद्ध उच्चारण और अंग्रेजी का बढ़ा शब्दकोष अच्छी अंग्रेजी जानने का पैमाना हुआ करता था| कान्वेंट स्कूल बड़े शहरो से होता हुआ छोटे नगरो में एक ही नाम से खुलने लगा| केरल और दक्षिण भारतीयों के शिक्षको का होना कान्वेंट स्कूलों की अलग पहचान होने लगी| मगर धीरे धीरे अंग्रेजी सरकारी स्कूलों में भी कक्षा 1 से शुरू होने लगी| 80 के दशक के आसपास आम भारतीय को लगने लगा कि अंग्रेजी के बिना तरक्की सम्भव नहीं है| बड़े आदमियों में अगर शुमार होना है तो अंग्रेजी का आना बहुत जरुरी है|

तब तक शिक्षा बाजार का रूप लेने लगी थी| देश विदेश में घूमी इंदिरा और राजीव गाँधी के सत्ता का दौर शिक्षा के व्यवसायिक होने के चरम के रूप में गिना जा सकता है| छोटे कस्बो में कान्वेंट खुलने की गति तेज हो चुकी थी| अंग्रेज अपने संतो के नाम पर कान्वेंट स्कूलों की श्रंखला शुरू करते थे| मगर भारतीय शिक्षा व्यवसाइयों ने भी उसी नाम को भुनाने का काम शुरू किया| स्कूल में अंग्रेजी शिक्षा का स्तर भले ही कुछ भी हो स्कूल का नाम अंग्रेज संत या अंग्रेजी में होना शिक्षा व्यवसाय का शो-केश बन चुका है| इन्ही स्कूलों में पढ़े बढ़े किसी बड़े शहर के होटल के दरबान के रूप में काम कर रहे होते हैं और थैंक्यू वेलकम जैसे अंग्रेजी के दो चार शब्द बोल बड़े लोगो में शुमार होने का भ्रम पाल रहे है|

शिक्षा और व्यवसाय दोनों एक ही पटरी पर दौड़ रहे है| कोई रेड रोज खोल रहा है तो कोई सेंट रोजी पब्लिक स्कूल| कोई सेंट लारेंस खोल बैठा तो कोई सेंट जेवियर| सिटी पब्लिक से लेकर आल संस कान्वेंट स्कूल खुले| इतना ही नहीं आचार्य अरविन्द को भी सेंट अरविंदो के नाम से खोल दिया| मगर न तो इन स्कूलों में इनके नाम की प्रासंगिता है और न ही शिक्षा में कोई खास पहचान| किसी ढाबे की बची बासी सब्जी से बनी सजी धजी मिक्स वेज की थाली से कम नहीं है नए युग में खुल रहे कान्वेंट स्कूल|

इन स्कूलों में न तो शैक्षिक मापदंडो पर खरे उतरने वाले शिक्षक है और न ही प्रिंसिपल| स्कूल में पढ़ने वाले बच्चो की शैक्षिक गुणवत्ता से कोई सरोकार न रखने वाले शिक्षा संस्थान देश के नौनिहालों के भविष्य के साथ खेल रहे है| मगर इन सब से बढ़ा दोष तो उन माँ बाप का है जो स्कूल में बच्चो को दाखिल करने से पहले स्कूल के शिक्षको और प्रबन्धन का ब्यौरा नहीं मांग पाते| इन स्कूलों से कहीं बेहतर पढ़ाई का माहौल सरस्वती शिशु मंदिरों और विद्या मंदिरों में है|

यही नहीं घटिया शिक्षा और गुणवत्ता विहीन फाइव स्टार स्टाइल स्कूल की चकाचौंध में अभिभावक अपने बच्चो के साथ भी अन्याय कर रहे हैं| ये कान्वेंट स्कूल यानि शिक्षा की दुकाने भ्रष्टाचार के बड़े अड्डे भी हैं| कागजो पर शिक्षको को महगा वेतन देने का हस्ताक्षर करा उन्हें 2000 से 6000 का वेतन देते है| वद्री विशाल डिग्री कॉलेज के रिटायर प्रोफेसर अब नगर के एक नामी कान्वेंट स्कूल में प्रिंसिपल है जहाँ उन्हें मेनेजर सिर्फ इस बात की इजाजत देता है की स्कूल में केवल दिखावे के लिए आओ| क्या ऐसे स्कूलों में जहाँ शिक्षा प्रबन्धन में प्रबन्धक अपना दखल रखता हो और प्रिंसिपल सिर्फ दिखावे के लिए तैनात हो उस स्कूल से आप किस प्रकार की शिक्षा की उम्मीद रखते है| स्कूल चलने का पैमाना स्कूल में भर्ती होने वाले छात्रो की संख्या से बनती हो, ऐसे शिक्षा के कारखाने क्या नौनिहालों के साथ इन्साफ कर रहे होंगे| ऐसे में अगर भारतीय भाषा में इन्हें कुकरमुत्ता कहा जाए तो कोई गुनाह नहीं होगा|