फर्रुखाबाद: जीवन में कभी-कभी ऐसी अनहोनी हो जाती है जिसकी शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। यह पुरानी कहावत है कि इस दुनिया में सिर्फ ऊपर वाले की ही चलती है। दुनिया में रहने वाले इंसानों की मर्जी से कुछ नहीं हो सकता। लेकिन ऊपर वाले द्वारा कभी-कभी शायद ऐसा हो जाता है जिसको देख या सुनकर उसकी खुद की आंखों में आंसू निकल पड़ें। ऐसी ही एक घटना जेएनआई के कैमरे में कैद हुई। जहां एक हंसता फूलता परिवार गुमनामी के गर्त में डूबता चला गया। यह कहानी उस व्यक्ति की है किसी दिन अपने लिए बड़े-बड़े सपने देखता था और परिवार भी खुशहाल था। लेकिन समय के चक्र ने उसे अपने भंवर में ऐसा फांसा कि वह अब लोहिया अस्पताल के मुख्य द्वार पर हर तरह से निराश होकर बस अपने भाई बहनों के साथ मौत का इंतजार कर रहा है।
राजेपुर थाना क्षेत्र के ग्राम उजरामऊ के महिपाल सिंह के परिवार में उसकी पत्नी सोनी, पुत्र विजय कुमार व एक पुत्री थी। महिपाल जाटव खेती का काम करते हैं और परिवार का भरण पोषण उसी से होता है। विजय कुमार जाटव बड़ा होने पर ट्रक चलाने की शिक्षा लेने के लिए एक ट्रक चालक के साथ बतौर सहगिर्द प्रैक्टिस करने लगा। लड़के को सही सलामत नौकरी लग जाने पर विजय बहादुर फूला नही समा रहा था। लेकिन उसे यह पता नहीं था कि उसकी किस्मत में कुछ और ही होने वाला है। विजय एक दिन लखीमपुर की तरफ से वापस आ रहा था तभी उसकी मार्ग दुर्घटना में रीड़ की हड्डी टूट गयी। किसी व्यक्ति ने उसे लखीमपुर के एक प्राइवेट चिकित्सालय में भर्ती करा दिया। लेकिन उस समय विजय के पास ज्यादा पैसे न होने की बजह से चिकित्सालय से उसे निकाल दिया गया। उसने अपने घर रहकर आवास विकास के एक हड्डी रोग विशेषज्ञ के यहां भर्ती हो गया। काफी दिन भर्ती रहने के बाद विजय को डाक्टर ने जबाब दे दिया। इस दौरान उसका तकरीबन डेढ़ लाख रुपया खर्च हो चुका था। इसके बाद उसे बरेली में एक प्राइवेट नर्सिंगहोम में दोबारा भर्ती कराया गया।
जहां तकरीबन 18 दिन भर्ती रहने के बाद डाक्टर ने जबाव दे दिया। उधर उसकी जेब भी खाली होने लगी। क्योंकि विजय के पिता महिपाल सिसि ने अपने बेटे को ठीक कराने के लिए अपना खेत तक गिरवीं रख दिया था। पैसे अदा न कर पाने पर उनके ही परिजनों ने खेत पर अपना कब्जा कर लिया व मकान भी लड़ झगड़ कर छीन लिया। पैसा न होने से परिजन उसे लोहिया अस्पताल लेकर आये जहां तकरीबन 10 दिन तक उसका इलाज चलता रहा। लेकिन लोहिया अस्पाल जैसे सफेद हाथी में ठीक से दस्त तक की गोलियां उपलब्ध न हों तो विजय की टूटी हड्डी कैसे जुड़े। घर मकान को खो चुके विजय के परिजनों ने उसे गांव में ही एक जगह लिटाकर भगवान के भरोसे छोड़ दिया और पिता महिपाल, मां सोनी दो बेटे, बेटियों को लेकर दिल्ली कुछ रोजगार तलाशने निकल पड़े। विजय के इलाज के लिए पैसे की आवश्यकता थी। कुछ माह बाद जब महिपाल की समस्या उसकी कंपनी के मालिक को पता हुई तो उन्होंने दिल्ली आल इण्डिया अस्पताल में उसको भर्ती कराने के बात कही। इसके लिए 10 हजार रुपये भी महिपाल को दिये।
पिता ने विजय को वापस दिल्ली पहुंचाया लेकिन तब तक महिपाल पर तकरीबन 25 हजार रुपये कर्जे के हो गये क्योंकि विजय की दवाइयां काफी महंगीं थीं। दिल्ली पहुंचने के बाद महिपाल के हाथ फिर से खाली हो गये। आल इण्डिया अस्पताल में उसे भर्ती नहीं किया गया और थक हारकर विजय पुनः लोहिया अस्पताल आ गया। इलाज कराने नहीं वल्कि अब उसे सिर्फ मौत का इंतजार था। उधर कर्जे में डूबे विजय के पिता महिपाल अब अपने बेटे का गम बर्दास्त नहीं कर पाये और दिमागी रूप से विक्षिप्त हो गये। न जाने कब से विजय के पास नहीं लौटे। विजय अपनी मां सोनी, छोटे भाई बहन के साथ लोहिया अस्पताल के मुख्य द्वार पर बने साइकिल स्टेंड के नीचे उसे छत मिल गयी जहां वह जमीन पर ही कई सप्ताह से मौत का इंतजार कर रहा है और अस्पताल प्रशासन विजय को एक चारपाई तक उपलब्ध कराने में हीलाहवाली कर रहा है।
विकलांग विजय की बहन के साथ मनचलों ने की बदसलूकी
लोहिया गेट पर लेटे विकलांग विजय ने जब अपनी कहानी बतायी तो सुनने वालों की आंखे बगैर गीली हुए नहीं बच सकीं। विजय ने कहा कि मैने किसी का क्या बिगाड़ा। भगवान ने वैसे भी मेरे साथ अन्याय किया। लेकिन यहां दूसरे का दर्द कोई नहीं समझता। मेरी जवान बहन जो मेरी देखभाल के लिए मेरे साथ थी। लोहिया परिसर में घूमने वाले मनचले लड़के उसे इस बजह से परेशान करते थे कि उन्हें मालूम था कि इसकी मदद करने वाला कोई नहीं और भाई है वह भी विकलांग हो गया। मनचलों से तंग आकर विजय ने अपनी बहन की इज्जत बचाने के चक्कर में उसे रिश्तेदारी में भिजवा दिया।
छोटा भाई मजदूरी करके पाल रहा परिवार का पेट
बीमारी में सब कुछ गवा चुके विजय अब चलने फिरने से मोहताज हैं। इलाज इसलिए नहीं करा पा रहा है कि उसके पास पैसा नहीं है और उसे प्रतिदिन दवाइयां भी चाहिए। जिस पर उसके छोटे भाई ने परिवार की जिम्मेदारी ले रखी है। 12 वर्षीय मासूम अस्पताल परिसर में ही मजदूरी कर चार पैसे कमाकर अपने भाई व मां, छोटी बहन का पेट तो भर देता है लेकिन उसके अंदर उमड़ रहे दर्द का क्या। आये दिन लोहिया अस्पताल में फल बिस्किट बांटने वाले नेता सामाजिक संगठन उसकी मदद के लिए आगे क्यों नहीं आ रहे हैं। लोहिया अस्पताल प्रशासन एक चारपाई तक उसे उपलब्ध नहीं करा पा रहा है। क्या यही है हमारे समाज की हकीकत
सफेदपोशों के पास मदद के लिए भटक रही विजय की मां
विजय जब हर तरह से मायूस हो गया, बाप भी मानसिक विक्षिप्त हो गये, इलाज के लिए पैसा नहीं। बहन की इज्जत भी जाते-जाते बची। लेकिन अभी भी विजय की मां सोनी हिम्मत नहीं हार रही है। वह न जाने कितने प्रार्थनापत्र सफेदपोशों के पास लेकर जा चुकी है। लेकिन किसी भी व्यक्ति ने उस पर तरस नहीं खाया। विजय की मां सुबह होते ही क्षेत्रीय नेताओं के पास गुहार लेकर जाती है और कोरे आश्वासनों के साथ उसे वापस लौटा दिया जाता है। जनपद में कोई भी सफेदपोश उसकी तरफ अपना दिमाग आकर्षित नहीं कर रहा है या जानबूझकर करना नहीं चाहता। फिलहाल विजय अपने मुहं से यही मांग रहा है, भगवान अब मुझे मौत दे।
इस सम्बंध में लोहिया अस्पताल के सीएमएस नरेन्द्र बाबू कटियार ने बताया कि साइकिल स्टेंड के पास मैने भी विजय को पड़ा देखा था। पूछताछ करने पर पता चला कि वह शरणार्थी है। अस्पताल में लाचार विजय को बैड दिये जाने की बात पर सीएमएस बोले कि अस्पताल कोई धर्मशाला नहीं है जहां इस तरह के लोगों को जगह दी जाये। अगर विजय अस्पताल में भर्ती होना चाहता है तो वह भर्ती कर लिया जायेगा।