फर्रुखाबाद: वर्ष के 12 महीनों में सावन के महीने का महत्व ही बिलकुल अलग माना गया है। चारों तरफ हरियाली, लहलहाते खेत, रंगबिरंगे फूलों पर मड़रातीं तितलियां, कल- कल बहतीं नदियां, पेड़ों की डालों पर पड़े झूलों के स्मरण मात्र से ही मन प्रफुल्लित हो जाया करता था। लेकिन समय के बहाव में जैसे सावन के महीने को ग्रहण ही लग गया। न हरियाली रही और न ही कोयल की आवाज। आधुनिकता की होड़ व भागमभाग जिंदगी ने सावन का मजा किरकिरा कर दिया है। हरियाली की जगह कंकरीट के जंगल नजर आने लगे, मौसम भी अब समयानुसार बदल चुका है। जब आम के पेड़ ही न रहे तो युवतियां झूले भी किस पर डालें। वहीं जूट व नारियल की रस्सियों की जगह भी चायनीज झूलों ने ले ली। रेशम के धागों की बनी राखी भी बाजार में चायनीज दिखने लगी है।
सावन का महीना हिन्दू धर्म में सबसे पवित्र महीना माना जाता है। इस महीने के शुरू होते ही युवतियों के अंदर काफी उत्साह देखने को मिलता था। जगह-जगह वृक्षों पर युवतियां झूले डालकर पैग भरते नजर आ जाती थी। मेहंदी के पेड़ों से पत्ती तोड़कर घर लाना तथा उसे पीसकर एक दूसरे के हाथों पर लगाना बड़े ही शौक से किया जाता था। लेकिन अब तो हरी मेंहदी की जगह भी रेडीमेड व कोन वाली मेहंदी ने ले ली। झूलों पर बैठकर सावन के गीत गाते हुए युवतियां पैग बढ़ातीं थीं।
परम्परा के अनुसार सावन के नागपंचमी के दिन भुजरियों की बुबाई की जाती है। जिन्हें किसी नदी या तालाब में गीत गाती हुईं महिलायें व युवतियां सिराने जातीं थीं। लेकिन तालाब व नदियां सिमटते सिमटते सीमित हो गयीं। शहरों में नदियों व तालाबों के न मिलने से भुजरियों को मंदिरों आदि में इकट्ठा किया जाने लगा। अब आधुनिकता की दौड़ में भुजरियां सिराने की परम्परा में भी बदलाव आ गया।
वहीं सावन आते ही प्रत्येक गांव के बागों में झूले पड़ जाते थे। इन झूलों पर गांव की युवतियां व महिलायें जाकर झूलतीं थीं। अब न तो वह बाग रहे और न ही युवतियों को झूलने का समय। कहीं कहीं यदि कोई झूला झूलने का मन बनाता भी है तो उन्हें बाजार में चाइनीज झूले मिल जाते हैं। जहां झूलों के लिए नारियल व जूट की रस्सी का प्रयोग किया जाता था वहीं अब चाइनीज झूले जिनमें एक युवती भी ढ़ंग से पैग बढ़ा दे तो शायद पीछे ही न लौट कर आये। वो पुराने झूले इतने मजबूत होते थे कि उनमें पटली इत्यादि बांधकर एक झूले पर पांच-पांच युवतियां व महिलायें साथ-साथ गाना गातीं हुईं पैग बढ़ांतीं थीं।
पुराने जमाने के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले सावन में रेशम के एक धागा बहने अपेन भाइयों को बड़े ही सम्मान से तिलक लगाकर बांधतीं थीं। भाई भी बहनों को बड़े ही सम्मान से पैर छूकर कुछ दक्षिणा दिया करते थे। भाई बहनों की रक्षा की कसमें खाते थे। लेकिन संस्कृति के बदलाव में राखी भी चाइनीज हो गयी। युवाओं की सोच भी चायनीज हो गयी। जो भाई बहन का रक्षक बनने की कसमें खाता था वही आज भक्षक बन रहा है। जिससे संस्कृति के बदलाव ने हमारे पवित्र त्यौहार को भी गंदा कर दिया है।