मिल मालिकों व बिचौलियों को लाभ पहंचाने के लिये अफसरों ने पैदा की बोरों की किल्लत!

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‘खाद्य आयुक्त, प्रमुख सचिव और जूट कमिश्नर की साठगांठ का ही परिणाम है कि डायरेक्टर जनरल डिस्पोजल एंड सप्लाई (डीजीएस एंड डी) को फरवरी में भुगतान की गई राशि के एवज में गनी ट्रेडिंग एसोसिएशन (जीटीए) के रेट के आधार पर उत्तर प्रदेश को बोरे मिलने चाहिए थे, लेकिन मिलर्स के हित में बोरों का रेट बढ़ने के इंतजार में प्रोडक्शन कंट्रोल ऑर्डर (पीसीओ) जारी नहीं किए गए। अप्रैल की दर पर उत्तर प्रदेश को पीसीओ जारी किए गए, जिससे प्रदेश सरकार को 9.87 करोड़ रुपये की प्रत्यक्ष हानि हुई। आप सभी को मेरा पत्र नागवार गुजरा और मुझसे ही जवाब तलब कर लिया गया। प्रदेश में बोरों का कृत्रिम अभाव पैदा करने के प्रयास के तहत ही दिल्ली बैठक में एक जिलास्तरीय अधिकारी को प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेज दिया गया। मेरा आग्रह नहीं माना गया। नतीजतन प्रदेश को कुछ हासिल नहीं हुआ और मध्य प्रदेश के अधिकारी एक सप्ताह में 7 रैक बोरों की आपूर्ति का भरोसा लेकर चले गए। प्रदेश को बैठक के पूर्व तय 3 रैक बोरों के अलावा और कुछ नहीं मिल सका।’

ये पंक्तियां हैं गेहूं के बोरों की खरीद-फरोख्त का काम देखने के लिए कोलकाता में तैनात खाद्य-रसद विभाग के स्थानिक प्रतिनिधि सरयू प्रसाद के पत्र की हैं जो उन्होंने प्रदेश की खाद्य आयुक्त को भेजा था। पत्र में दिए तथ्यों से सरकारी मशीनरी के कामकाज की बानगी तो मिलती ही है। यह तथ्य भी उजागर होता है कि बोरों को लेकर हाय-तौबा महज दिखावा थी। अधिकारी लापरवाही न बरतते और समय से प्रक्रिया पूरी कर ली जाती तो बोरों की कमी होती न ही ज्यादा पैसे ही देने पड़ते।

पत्र में सड़क मार्ग से बोरे मंगाने की अधिकारियों की घोषणा पर न सिर्फ सवाल उठाए गए हैं बल्कि वित्तीय अनियमितता की बात भी कही गई है। इसके अलावा सड़क मार्ग से बोरों की आपूर्ति मे कई विधिक और व्यावहारिक अड़चनों का उल्लेख करते हुए विभागीय अधिकारियों की भूमिका को कठघरे में खड़ा किया गया है। तर्क दिया है कि सड़क मार्ग से बोरों की आपूर्ति को लेकर पंजाब, हरियाणा के खिलाफ पहले ही सीबीआई जांच का फैसला हो चुका है। अच्छा होगा कि यूपी इस झंझट में न पड़े। ट्रकों पर बोरे रात में लोड कराने होंगे। उस स्थिति में बोरों को चेक करना आसान नहीं होगा। यह भी तर्क दिया है कि प्रदेश के बाहर परिवहन ठेकेदार तय करने का कार्य शासन का है। वित्त नियंत्रक जिनसे हम अपने बजट का रोना रोते हैं, वह हमारे कहने पर किस आधार पर ठेकेदार का भुगतान करेंगे। पत्र में लिखा है, ‘सारा प्रकरण वित्तीय है। इसलिए फोन से नहीं बल्कि लिखित निर्देश और स्वीकृतियां दी जाएं। टेलीफोनिक टेरर, मेंटल टॉर्चर व गाली गलौज के आधार पर इसका संपादन नहीं हो सकता है। ….भविष्य में यदि किसी के भी द्वारा फोनिक मेंटल टॉर्चर/धमकी/गाली-गलौज की जाती है तो मैं विवश होकर सारे तथ्य मुख्य सचिव के संज्ञान में डाल दूंगा।’