मई दिवस से अंजान अधिकांश चौक पर आज भी मैले कुचैले कपड़ों में लिपटे मजदूर कही मजदूरी पर जाने के लिये खड़े थे। इनमें मजदूर से लेकर मिस्त्री, पेंटर तक शामिल हैं। सुबह आठ बजे से 11 बजे तक का यहां का नजारा देखने लायक होता है। कोई कार से तो कोई बाइक से मजदूर लेने के लिए पहुंचता है, जिसकी ओर मजदूरी की इंतजार में खड़े लोग तेजी के साथ झपटते हैं। मजदूर लेने आया व्यक्ति काम के लिहाज से उसकी कद काठी देखने के बाद ही अपने साथ पसंद करके ले जाता है। कमजोर और असहाय सा दिखने वाला वहीं खड़ा रहकर अगले मालिक का इंतजार करता है। कई बार तो दिन भर इंतजार के बावजूद उसे काम न मिलने पर खाली हाथ ही घर लौटना पड़ता है। सरकार ने मनरेगा के माध्यम से ग्रामीण अंचल में 120 रुपये प्रतिदिन मजदूरी निश्चित की है, लेकिन सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के चलते अधिकांश काम तो मशीनों से या कागजों पर ही हो जाते हैं। अगर मजबूरी में मजदूर लगाने भी पड़े तो इनमें मजदूरी भी केवल प्रधान के चमचों को ही मिल पाती है।परिवार का पालन-पोषण इसमें संभव नहीं है।
आज से लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व एक मई वर्ष 1986 को शिकागो के 40 हजार मजदूरों की हड़ताल ने पूंजीवाद और क्रूरतम व्यवस्था को चुनौती दी थी। हड़ताल को खत्म करने के लिए गोलीबारी में हेग मार्किट की सड़कों पर मजदूरों का खून बहा था, मजदूर नेताओं को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। खता बस इतनी थी कि वह दिन रात काम करने की बजाए मानवीय तरीके से आठ घंटे ड्यूटी की मांग कर रहे थे। किसी भी राष्ट्र की प्रगति एवं राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का प्रमुख भार मज़दूर वर्ग के कंधों पर होता है। यही वर्ग है, जो हाड़-तोड़ मेहनत के बलबूते पर राष्ट्र के प्रगति चक्र को तेज़ी से घुमाता है लेकिन कर्म को ही पूजा समझने वाला श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है।
मई दिवस के अवसर पर देशभर में बड़ी-बड़ी सभाएँ होती हैं, बड़े-बड़े सेमीनार आयोजित किए जाते हैं, जिनमें मज़दूरों के हितों की बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनती हैं और ढ़ेर सारे लुभावने वायदे किए जाते हैं, जिन्हें सुनकर एक बार तो यही लगता है कि मज़दूरों के लिए अब कोई समस्या ही बाक़ी नहीं रहेगी। लोग इन खोखली घोषणाओं पर तालियाँ पीटकर अपने घर लौट जाते हैं किन्तु मज़दूरों को फिर वही शोषण, अपमान व जिल्लत भरा तथा गुलामी जैसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। विड़म्बना ही है कि देश की स्वाधीनता के छह दशक बाद भी अनेक श्रम क़ानूनों को अस्तित्व में लाने के बावजूद हम आज तक ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं कर पाए हैं, जो मज़दूरों को उनके श्रम का उचित मूल्य दिला सके। भले ही इस संबंध में कुछ क़ानून बने हैं पर वे सिर्फ ढ़ोल का पोल ही साबित हुए हैं। हालांकि एक सच यह भी है कि अधिकांश मज़दूर या तो अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ होते हैं या फिर वे अपने अधिकारों के लिए इस वजह से आवाज़ नहीं उठा पाते कि कहीं इससे नाराज़ होकर उनका मालिक उन्हें काम से ही निकाल दे और उनके परिवार के समक्ष भूखे मरने की नौबत आ जाए।
शहर व देहात में ढाबे और दुकानों पर बाल मजदूरी भी चरम पर है। हालांकि इसकी रोकथाम के लिए श्रम विभाग की ओर से आये दिन छापेमारी का नाटक नियमित रूप से किया जाता है। बच्चों व महिला श्रमिकों का आर्थिक रूप से तो शोषण होता ही है, उनका शारीरिक रूप से भी जमकर शोषण किया जाता है लेकिन अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए चुपचाप सब कुछ सहते रहना इन बेचारों की जैसे नियति ही बन जाती है ।