फर्रुखाबाद: अगर 30 साल पहले की होली होती तो इन दिनों चंदा बसूली के लिए कटिया फंसाने का खेल हर चौराहे- तिराहे पर चल रहा होता। उन दिनों होली से पहले मोहल्लों के लड़कों के पास जैसे कोई और काम ही नहीं रह जाता था। बस हंसी-ठिठोली और फंस गए तो बुरा न मनो होली है।
होली पर चंदा बसूली की जुगत ऐसी जिसमे चकल्लस भी हो, गलियां भी मिलें और आखिर में अठन्नी-चवन्नी भी। कुछ ऐसा ही होता था मोहल्ले के चिरैन्दी लड़कों का चंदा बसूली का खेल। एक लम्बी डोरी को बिजली के तार के सहारे लटकाया जाता था जिसमे फंसने के लिए एक सेफ्टी पिन लगाया जाता था।
उन दिनों अक्सर लोग अपने कुरते या कमीज के ऊपर अंगौछा डालकर निकलते थे। किसी चंट लड़के को जिम्मेदारी दी जाती थी कि वह चुपके- चुपके जाए और सेफ्टी पिन की नोक अंगौछे में फंसकर पीछे भाग जाये। बस डोर में कांटा लगाकर तैयारी पूरी, चंदा करने वाले लड़कों की टीम आकर जम जाती थी अपने मुकाम पर। देखा की रघुबीर बाबू चले आ रहे हैं हाथ में झोला लिए और कंधे पर अंगौछा डाले। झट से छोटे उनके पीछे सधे पाँव गए और अंगौछे में कांटा फंसा दिया। अब तो रघुवीर बाबू देने लगे गलियां। तभी गप्पू सामने आया, बोला क्या हुआ चच्चा। चच्चा और आग- बबूला। फिर तो पूरी टीम सामने आ गयी। कहा चच्चा पहले चंदा दो तब मिलेगा अंगौछा। अब चच्चा करते भी तो क्या करते गलियां देते जाते और जेब में हाथ डालते जाते। पहले चवन्नी दी, पर लड़के नहीं माने तो अठन्नी दी और तब मिल पाया अंगौछा। यह किस्से तो हर चौराहे- तिराहे पर दीखते थे और पूरे दिन झंझटें होती थीं। लोग चंदा देते थे वह भी गालियों में लपेट कर और लड़के खाते थे, हर गाली के जवाब में बस एक ही नारा “बुरा न मानो होली है”। अब न तो कांधे पर किसी के अंगौछा है और न ही किसी को लड़के को स्कूली होम वर्क से इन सब कामों के लिए फुसत है। फिर अब लोगों में सहनशीलता भी कहाँ रह गयी।