विकलांगों को सम्मान देने में समाज क्यों है पीछे ?

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एक ऐसा वर्ग , जो सामान्य से अलग है किंतु वे बेचारे नहीं है – इसके लिए इतिहास लिख रहे हैं। यह समाज आज भी उनको सम्मान नहीं दे पाता है, जिसके वे हक़दार हैं। एक अहसास रखते हैं उनके लिए कि वे विकलांग हैं, पर वे वास्तव में बेचारे नहीं हैं।

सम्पूर्ण विश्व में इनकी संख्या ६५० मिलियन है आंकी गई है और प्रत्यके देश में इनकी संख्या १५ से २० प्रतिशत तक है। इतने सारे लोग अक्षम कहे जाते हैं , वह बात और है कि इनकी विकलांगता का स्वरूप अलग अलग हो सकता है। एक महत्वपूर्ण बात यह है की जो विकलांग पैदा होते हैं – उनकी बाल्यावस्था और किशोरावस्था में उनके साथ किया गया व्यवहार और मनोवैज्ञानिक संबल उनको भविष्य के लिए तैयार करता है। इस काल में उनके सामने सम्पूर्ण जीवन होता है और वे भविष्य के प्रति आशंकित होते हैं। उनकी इन आशंकाओं के जन्मदाता हम ही होते हैं। उनके घर, परिवार और परिवेश में यदि सकारात्मक सोच हो तो वे फिर अपने को सक्षम बना सकते हैं। इसमें सबसे बड़ी भूमिका माता-पिता और भाई बहनों की होती है।

इस तरह से सभी विकलांगों में सक्षम होने के जज्बे को भरने की जरूरत है। भीख माँगते हुए विकलांगों की तस्वीर यदि मन को द्रवित कर जाती है तो अपने हाथों से साइकिल चलाकर १५ किमी तक की दूरी तय करके नौकरी के लिए जाती हुए नित्या पर गर्व किया जा सकता है। बस वह ये सहन नहीं कर पाती कि लोग उसको ‘बेचारी’ की संज्ञा से नवाजें।

ये ‘बेचारा’ शब्द इन लोगों के लिए एक मायूसी का माहौल पैदा कर सकता है। उनका हाथ पकड़ कर खड़ा नहीं कर सकते तो उनको धक्का भी मत दीजिये। वे आपसे सहानुभूति नहीं बल्कि हौसला अफजाई की उम्मीद रखते हैं। सक्षम तो वे हैं ही- अपनी अक्षमताओ को चुनौती मानकर लड़ने के लिए भी तैयार है। आप बस उनके लिए स्तम्भ बन जाइए।