शासन से निकाय चुनाव अधिसूचना जारी नहीं हो सकी

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फर्रुखाबाद: उच्च न्यायालय की इलाहाबाद पीठ के मंगलवार को 24 घंटे के भीतर निकाय चुनाव की अधिसूचना जारी करने के आदेश के बावजूद बुधवार को अधिसूचना जारी नहीं हो सकी है। प्राप्त जानकारी के अनुसार मंगलवार को ही उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने भी अधिसूचना जारी करने का आदेश दिया परंतु उसमें एक सप्ताह की मोहलत दी गयी थी।

विदित है कि मंगलवार को राज्य सरकार और चुनाव आयोग की याचिका को नामंजूर करते हुए हाईकोर्ट ने बुधवार 16 नवंबर तक अधिसूचना जारी करने का शासन को निर्देश दिया था, साथ ही यह भी कहा कि था कि यदि व्यवहारिक हो तो चुनाव वर्ष 2011 की जनगणना पर ही कराए जाएं। यदि यह संभव न हो तो वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर चुनाव हों। कोर्ट ने चुनाव प्रक्रिया को छह सप्ताह में पूरा करने को कहा था। न्यायालय के आदेश के चलते बुधवार को दिन भी अधिसूचना जारी होने का इंतजार होता रहा। परंतु शाम तक अधिकसूचना जारी नहीं हो सकी। पता चला है कि मंगलवार को ही इसी मुद्दे पर उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने भी सरकार को चुनाव कराने के आदेश दिये थे, परंतु इसके लिये अधिसूचना हेतु एक सप्ताह का समय दिया गया था। लखनऊ में न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह व न्यायमूर्ति एससी चौरसिया की खंडपीठ ने नगर निकायों में प्रशासकों की नियुक्ति संबंधी सरकार के निर्णय पर फिलहाल रोक लगा दी है। साथ ही कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि महापौरों व सभासदों आदि का कार्यकाल उनकी पहली बैठक से माना जाएगा और बैठक से ही पांच साल का कार्यकाल माना जाएगा।

मंगलवार को राज्य सरकार और चुनाव आयोग की ओर से अधिसूचना जारी करने की तिथि 31 अक्तूबर को आगे बढ़ाने की याचिका पर न्यायमूर्ति अमिताव लाला और वीके माथुर की खंडपीठ ने सुनवाई की। भारत सरकार के जनगणना विभाग ने अपना पक्ष रखते हुए 19 अक्टूबर के आदेश का पालन करने में तकनीकी आधार पर असमर्थता व्यक्त करते हुए आदेश संशोधित करने की मांग की, जबकि याचियों के वकील का तर्क था कि चुनाव कराने के लिए वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े बाधक नहीं हैं।

सरकार के पास मतदाता सूची है और वह चुनाव करा सकती है। यह भी दलील दी गई कि जनगणना विभाग ने वर्ष 2011 के आंकड़े राज्य सरकार को उपलब्ध नहीं कराए हैं, जबकि वह चाहे तो कंप्यूटरीकृत प्रक्रिया के जरिए जल्द आंकड़े उपलब्ध करा सकता है। न्यायालय ने कहा कि पिछला कार्यकाल समाप्त होने तक नए चुनाव कराना संवैधानिक बाध्यता है।