किन्नरों ने भी सोलह श्रृंगार कर रखा करवा चौथ व्रत

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फर्रुखाबाद: किन्नर एक ऐसा वर्ग है जो सभी के लिए अक्सर जिज्ञासा और आश्चर्य का विषय होता है। इनके जीवन का एक मात्र सहारा क्षेत्रीय नाच-गान ही है। हमारे यहां कोई भी तीज-त्यौहार या शादी ब्याह होता है तो किन्नरों को दान दिया जाता है। साथ ही कहा जाता है कि किन्नरों को दान देना चाहिए क्योंकि इन्हें दान देने से आर्थिक तरक्की होती है।

कई बड़े शहरों में किन्नरों ने भी करवा चौथ का निर्जला व्रत रखा और पूरे दिन प्यासे रहकर अपने सुहाग की दीर्घायु की कामना की। किन्नर समाज अपना सुहाग अपने गुरु को मानता है।

किन्नर का कहना है कि हर साल हमारा समाज यह व्रत रखता है। शाम साढ़े सात बजे चांद के निकलने के बाद ही किन्नरों का यह समूह अपना उपवास पानी पीकर तोड़ेगा। किन्नरों में मान्यता है कि व्रत खंडित होने पर गुरु अक्सर बीमार पड़ जाता है। इस पर्व पर सुहागिन औरतों की तरह ही किन्नरों का यह समाज सोलह श्रृंगार करता है।

किन्नरों ने यह भी बताया कि आज के दिन हम ब्यूटी पार्लर पर जाकर श्रृंगार करवाते हैं, अपने हाथों में मेहंदी लगवाते हैं और रंग-बिरंगी चूड़ियां भी पहनते हैं। हमसे कोई भी ब्यूटी पार्लर वाला श्रृंगार करवाने के बदले मेहताना नहीं लेता है। सानू का कहना था कि वैसे भी हम अपने गुरु के साथ ही सबके दीर्घायु की प्रार्थना करते हैं|

किन्नर प्रजाति-

किन्नर हिमालय में आधुनिक कन्नोर प्रदेश के पहाड़ी लोग, जिनकी भाषा कन्नौरी, गलचा, लाहौली आदि बोलियों के परिवार की है।

किन्नर हिमालय के क्षेत्रों में बसनेवाली एक मनुष्य जाति का नाम है, जिसके प्रधान केंद्र हिमवत्‌ और हेमकूट थे। पुराणों और महाभारत की कथाओं एवं आख्यानों में तो उनकी चर्चाएँ प्राप्त होती ही हैं, कादंबरी जैसे कुछ साहित्यिक ग्रंथों में भी उनके स्वरूप निवासक्षेत्र और क्रियाकलापों के वर्णन मिलते हैं। जैसा उनके नाम ‘किं+नर’ से स्पष्ट है, उनकी योनि और आकृति पूर्णत: मनुष्य की नहीं मानी जाती। संभव है, किन्नरों से तात्पर्य उक्त प्रदेश में रहने वाले मंगोल रक्तप्रधान उन पीतवर्ण लोगों से हो, जिनमें स्त्री-पुरुष-भेद भौगोलिक और रक्तगत विशेषताओं के कारण आसानी से न किया जा सकता हो।

किन्नरों की उत्पति के बारे में दो प्रवाद हैं-एक तो यह कि वे ब्रह्मा की छाया अथवा उनके पैर के अँगूठे से उत्पन्न हुए और दूसरा यह कि अरिष्टा और कश्पय उनके आदिजनक थे। हिमालय का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरों का प्रधान निवासस्थान था, जहाँ वे शंकर की सेवा किया करते थे। उन्हें देवताओं का गायक और भक्त समझा जाता है, और यह विश्वास है कि यक्षों और गंधर्वों की तरह वे नृत्य और गान में प्रवीण होते थे। विराट् पुरुष, इंद्र और हरि उनके पूज्य थे और पुराणों का कथन है कि कृष्ण का दर्शन करने वे द्वारका तक गए थे। सप्तर्षियों से उनके धर्म जानने की की कथाएँ प्राप्त होती हैं। उनके सैकड़ों गण थे और चित्ररथ उनका प्रधान अधिपति था।

मानव और पशु अथवा पक्षी संयुक्त भारतीय कला का एक अभिप्राय। इसकी कल्पना अति प्राचीन है। शतपथ ब्राह्मण (7.5.2.32) में अश्वमुखी मानव शरीरवाले किन्नर का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी पक्षी के रूप में की गई है। मानसार में किन्नर के गरुड़मुखी, मानवशरीरी और पशुपदी रूप का वर्णन है। इस अभिप्राय का चित्रण भरहुत के अनेक उच्चित्रणों में हुआ है।