फर्रुखाबाद: इस्लामी फलसफे के मुताबिक रोजे से अपने गुनाह पर शर्मिदगी, खुदा से मगफिरत, इबादत का शौक और रूह की पाकीजगी का जज्बा पैदा हो जाता है। रमजान में फरिश्तें जमीन पर आते हैं। रमजान शरीफ का पहला अशरा रहमत, दूसरा मगफिरत और तीसरा जहन्नुम से छुटकारे का है। परवरदिगार के इस नेमत को हासिल करने के लिए सब्र का इम्तिहान देना पड़ता है। रमजान मुबारक के तीस दिन में इबादत, ईमानदारी और मोहब्बत के रास्ते पर चलकर दुनियावी और आखरत के सफर को सुहाना बनाया जा सकता है।
रोजे की भूख गरीब के दर्द को महसूर करने का अवसर देती है
रमजान उल मुबारक का मुक्कदस महीना मालदार और गरीब के बीच जेहन व दिल की दूरी खत्म करने का का बुनियादी जरिया है। ग्यारह महीनों के दौरान दौलत और गुरबत के बीच बनी खाई पर एक हसीन पुल का काम करता है रमजान शरीफ। रोजेदार की भूख जब अपने पूरे शबाब पर होती है, उस वक्त उसे ग़रीबों का दर्द समझने का शऊर पैदा होता है। रमजान के पाक महीने को दूसरे 11 महीनों की बनिसबत इस वजह से भी बरतरी हासिल है क्योंकि आमतौर पर इस महीने में कमजोर से कमजोर इंसान का दस्तरखान भी कुशादा हो जाता है। यही वो चीज है जो इंसान में रहमदिली, भाईचारा और मोहब्बत पैदा करती है।
जकात व फितरा हैं इस्लामी टैक्स व्यवस्था का हिस्सा
किसी भी अर्थ व्यवस्था के लिये टैक्स एक महत्वपूर्ण अंग है। जकात इस्लाम की स्वनिर्धारित टैक्स व्यवस्था है। जकात दरअसल खुदा के एक बंदे पर दूसरे बंदे का हक है। रमजान के मुबारक महीने में इस्लाम का पांचवां रुक्न जकात अदा करना अफजलतरीन है। दरअसल इंसान को इंसान के करीब लाने का बेहतरीन जरिया है जकात। जकात के मायने हैं पाक करना। जकात अदा करके इंसान अपने माल को पाक करता है। दूसरे अलफाज में कहा जाए तो जकात आदमी पर खुदा की तरफ से मुकर्रर किया हुआ टैक्स है। इसे अदा करके बंदा खुदा के कहर और गजब से निजात पाता है। साथ ही खुदा की खास रहमत के साये में आ जाता है।
अल्लाह के नबी ने फरमाया कि हर दौर में खुदा के मानने वालों पर मजमूई एतबार से इतनी दौलत रहती है कि अगर हर शख्स अपने माल की जकात ईमानदारी और सही तरीके से मुसतहिक आदमी को तलाश करके अदा कर दे तो दुनिया में खुदा को मानने वाला एक भी शख्स गरीब नहीं रहेगा। जिस तरह जकात खुदा की तरफ से मुकर्रर किया हुआ माल का टैक्स है। इसी तरह फितरा जिस्म का टैक्स है। यानी जकात माल में खैर व बरकत पैदा करती है। जबकि खैरात इंसान के अंदर खैर सगाली और इंसानी हमदर्दी पैदा करता है।
सदका और इमदाद पर सिर्फ मुसलमान का हक नहीं
इस्लाम ने दौलत पर मुसलमान के अलावा हर इंसान का हक रखा है। यही वजह है कि अल्लाह के नबी ने जकात और फितरे के एक हिस्से पर दूसरे मुसतहिक मुसलमान का हक बताया है तो सदका और इमदाद को तमाम दुनिया के मुसतहिक इंसानों के लिए आम किया है। नबी-ए-करीम ने फरमाया है कि वो शख्स सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता है जिसका पड़ोसी भूखा सो जाए। रमजान का मुबारक महीना रोजा, जकात, सदका, फितरा, खैरात और इमदाद की शक्ल में समाजी उसूलों पर अमल करने का हुक्म देता है।