डेस्क: छठ का पर्व केवल मनाए जाने के तरीके के चलते ही विशिष्ट नहीं होता, इस अवसर पर तैयार किए जाने वाले विशेष प्रसाद भी इसे विशिष्टता प्रदान करते हैं। छठ पर बनने वाले प्रसाद का देसी अंदाज और बेमिसाल स्वाद हर किसी को भाता है। पर्व को मनाने वाले लोग तो इस प्रसाद को पाने के लिए उत्सुक होते ही हैं, जो नहीं मनाते वह भी इसे ग्रहण करने से नहीं चूकते।
मिठाई की तरह तैयार किया जाता है ठेकुआ
ठेकुआ जिसे खजूरिया या थिकारी भी कहते हैं, को पर्व पर मिठाई की तरह तैयार किया जाता है। छठ पर इसे पूरे मन से तैयार करने वाली इंद्रावती देवी बताती हैं कि ठेकुआ का कच्चा माल गेहूं के आटे के बेस में चीनी या गुड़, नारियल और सूखे मेवे को मिलाकर तैयार किया जाता है। देसी घी में फ्राई होते ही इसकी सोंधी खुशबू सभी को ग्रहण करने के लिए मजबूर कर देती है। कद्दू की सब्जी छठ का ऐसा पकवान है, जिसे लौकी और सेंधा नमक के साथ घी में पकाया जाता है। तली हुई गरी मिला देने से सब्जी का स्वाद लाजवाब हो जाता है।
छठ में बनने वाली पूड़ी
देसी घी में तले जाने के चलते विशेष हो जाती है। हरा चना एक ऐसा व्यंजन है, जो छठ की विशेष थाली में ज्यादातर घरों में मिलेगा। इसे बनाने के लिए चने को रात भर पानी में भिगोया जाता है, अगले दिन घी में जीरा और हरी मिर्च के साथ तैयार किया जाता है। छठ में इसे पूरे मन से तैयार करने वाली संध्या बताती हैं कि इस व्यंजन का जो स्वाद छठ में मिलता है, वह अन्य दिनों में नहीं मिल पाता।
चावल की खीर
जिसे ‘रसियाव’ कहते हैं, छठ के प्रसाद की जान है। इस खीर को मीठा करने के लिए गुड़ का इस्तेमाल किया जाता है। छठ के पकवान के स्वाद को लेकर संजीदा रहने वाली वंदना त्रिपाठी कहती हैं कि रसियाव छठ पूजा के प्रसाद को पूर्णता प्रदान करता है।
छठ पर्व से जागृत होती है सामुदायिकता की भावना
त्योहारों पर चढ़ते इंटरनेट मीडिया के रंग के दौर में छठ ही ऐसा पर्व है, जो सामुदायिक भागीदारी की भावना को आज भी पूरी तरह से जागृत रखे हुए है। यह पूजा एक ऐसे समाज का सुंदर उदाहरण है जो समावेशी है, भेदभाव रहित है और पर्यावरण की परवाह करता है।
छठ प्रकृति के साथ
मानव के सदियों पुराने सौहार्दपूर्ण संबंधों की याद दिलाता है। वास्तव में छठ पर्व के माध्यम से देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण हो रहा है। यह पर्व प्राचीन भारतीय संस्कृति को संरक्षित एवं पुनर्स्थापित करने का एक मंच बन रहा है। चार दिन का यह पर्व ग्रामीण अर्थव्यवस्था, फसल और प्रकृति को धन्यवाद देने की भावना का संयोजन करने वाला है।
रामायण काल से है छठ की सामाजिक मान्यता
छठ की मान्यताओं को ही इसकी मजबूती का आधार मानते हैं। उनके अनुसार रामायण काल में भगवान राम के अयोध्या लौटने से छठ की परंपरा जुड़ती है तो महाभारत काल में द्रौपदी द्वारा छह दिन की छठ पूजा का विधान मिलता है। छठ की मान्यता का पौराणिक स्रोत भी इसे मजबूती प्रदान करता है।
इसमें राजा प्रियव्रत के मृत पुत्र को षष्ठी देवी द्वारा स्पर्श से जीवित करने की कथा बहुत ही प्रचलित है, जिसमें षष्ठी माता को सृष्टि का संरक्षक बताया गया है। प्रो. हिमांशु कहते हैं कि छठ एक मात्र ऐसा आध्यात्मिक पर्व है, जिसमें भक्त और भगवान के बीच किसी पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती।
भक्त से भगवान का सीधा रिश्ता कायम होता है। लोकसंस्कृति में छठ को सौभाग्य की देवी के रूप में मान्यता मिली हुई है। इस वजह से भी पर्व जन-जन से जुड़ता है और यही वजह है कि इसका प्रसार देश-दुनिया में बीते कुछ वर्षों में तेजी से हुआ है। इसे सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की संज्ञा दी जा सकती है।