क्योंकि छात्र वोटर नहीं है इसलिए देश में शिक्षा मंत्रालय नहीं मानव संसाधन मंत्रालय है..

FARRUKHABAD NEWS

ये कडुआ सच था और आज भी है किसी भी सरकार के लिए| अन्य सरकारों की तरह एनडीए की सरकार ने भी बीते पांच सालो में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य या उसकी गुणवत्ता में सुधार के लिए काम न के बराबर नहीं किये| मानस संसाधन मंत्रालय केवल उच्च शिक्षा के नियंत्रण के तौर तरीको में उलझा रहा मगर वहां भी कोई ठोस परिणाम नहीं मिला| प्राथमिक शिक्षा पर सरकारे इसलिए ध्यान नहीं देती क्योंकि इसमें पढ़ने वाला वोटर नहीं होता| उसकी उम्र 18 से कम होती है| क्या अब सब काम और योजनाये इस बात को ध्यान में रख कर बनायीं जाने लगी है कि सरकार की योजनाओ के लाभ से वोटर निकलना चाहिए| अगर स्थिति ऐसी है तो बहुत ठीक नहीं है| कम से कम कठोर फैसले लेने में माहिर नरेन्द्र मोदी से ये उम्मीद नहीं होनी चाहिए| अब चुनाव बीत चुके है और इस लेख से चुनाव को कोई फर्क नहीं पड़ेगा इसलिए भक्तो से अनुरोध है कि अगर कोई टिप्पणी लिखे तो अपना मोबाइल नंबर, ईमेल और नाम सही लिखे| हम प्रकाशित कर देंगे| वर्ना बेनामी तो बिना पढ़े ही डिलीट कर दिए जाते है|

बात प्राथमिक शिक्षा की चल रही है| अगर आप इसे पढ पा रहे हैं तो आप भाग्यशाली हैं क्योंकि आप तमाम सामाजिक भव बाधाओं के बावजूद स्कूल जा पाए और साक्षर बन पाए। लेख चूंकि हिंदी में है इसलिए इसे पढने वाले समाज के प्रभु वर्ग से नही आते और जो कुछ लोग भाग्यशाली हैं वे अंग्रेजी भी पढ लेते हैं। उनके लिए दुनिया थोडी ज्यादा आसान है। फिर भी दुनिया तो दुनिया है और यहां हर मामले में विरोधाभास चलते रहते हैं। 
एक जमाने में जैसे तैसे बहुत बैंड बाजे के साथ देश की शिक्षा के मसीहा अर्जुन सिंह और सौभाग्य से दुनिया के कई विश्वविघालयों में पढ़े प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐलान किया था कि भारत के संविधान में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के लिए बजट सत्र में ही विधेयक पेश कर के कानून बना दिया जाएगा। यह विधेयक, विधेयक ही रह गया। कानून नही बन पाया। दूसरे शब्दों में आज भी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में निरक्षर रहना कानूनी हैं और तकनीकी तौर पर सरकार की कोई जिम्मेदारी नही बनती कि हमारे आपके बच्चे वर्णमाला भी सीख पाएं। सरकार में जो लोग बैठे हैं वे बहुत आसानी से और अपनी सुविधा से शिक्षा और साक्षरता का भेद मिटा देना चाहते हैं। शिक्षा हर तरह से मिल सकती है, गांव का किसान फसल और मौसम के परिणामो के बारे में अच्छी तरह शिक्षित होता है लेकिन भारतीय खाध निगम के गोदामों और गन्ना मिलों के खरीद काउंटरो पर उसके साथ जो राजपत्रित बेईमानी की जाती है उससे सुलझने का उसके पास कोई उपाय नही है। उसे नही मालूम कि दो और दो चार ही होते हैं। एक जमाने में अटल बिहारी बाजपेयी की एनडीए सरकार ने भी छ: से चौदह साल के बच्चों की पढाई को अनिवार्य बनाने के लिए एक विधेयक पास किया था। इस सरकार के ज्यादातर समर्थक और नेता या तो सेठ साहुकार हैं, या रिटायर्ड अफसर हैं या साधू संत थे। जैसे संतो को कहावत के अनुसार सीकरी से कोई काम नही होता वैसे ही एनडीए सरकार ने यह नही सोचा कि सिर्फ कानून बनाने से तस्वीर बदल नही जाती।

आज कानून तो है| मगर शिक्षा का अधिकार अधिनियम कहाँ लागू है किसी अभिभावक को पता नहीं और जिले पर बैठे जिला शिक्षा अधिकारी और जिलाधिकारी को इसकी असल तस्वीर जानने की न फुर्सत हुई और न ही कोई रूचि होती है| यकीन नहीं आता तो जान लीजिये कि किसी भी कान्वेंट में 25 प्रतिशत गरीब बच्चो को निशुल्क पढ़ाने के कोटे में से 1 प्रतिशत भी गरीब बच्चो का दाखिला प्राइवेट स्कूल में नहीं है| जनप्रतिनिधियो की बात कौन करे| इन्हें न तो कानून पता है और न ही इसे लागू करवाने में रूचि| इन्हें एक मन्त्र मिल गया है कि “मोदी है तो मुमकिन है”| वर्तमान भाजपा सांसदों और विधायको की तो हालत अब बबूल के पेड़ पर फैली उस हरी हरी आकाश बेल की तरह है जिसकी जड़ नहीं होती और वो बबूल पर आश्रित हो जाता है| अपना कोई अस्तित्व नहीं|

गांव में और शहरों में भी बच्चे चलने लायक होते हैं तो खेतों में खर पतवार बीनने से लेकर शहरों में कूडा उठाने में लग जाते हैं। जिन्हें पाठशालाओं में होना चाहिए वे परिवार का संसाधन बन जाते हैं। वैसे भी अपने देश के शिक्षा मंत्रालय को फिरंगी तर्ज पर राजीव गांधी के जमाने में मानव संसाधन विकास मंत्रालय नाम दे दिया गया था। इस नाम का तात्विक अर्थ यही है कि अपन जो लोग हैं वे सब प्रतिष्ठान के संसाधन हैं और भारत सरकार हमारा विकास करना चाहती है। इस पूण्य कामना के लिए हमें उन लोगों का कृतज्ञ होना चाहिए जो हमारे ही वोटों से जीत कर हमारे भाग्य विधाता बन जाते हैं। जहां तक मेरा सवाल है तो मैं अपने देश को उस समय सम्पूर्ण लोकतंत्र मानने पर राजी होऊंगा जब वोटिंग मशीनों से चुनाव चिन्ह गायब कर दिए जाएगें। चुनाव चिन्ह का मतलब ही यह है कि निरक्षर मतदाताओं, तुम्हें उम्मीदवार से क्या लेना देना, वह चोर है तो बना रहे तुम तो हाथ हाथी या कमल पर बटन दबाओ और लौट कर अपनी मजूरी में लग जाओ।

जो जीतेगा वह आपका विकास करेगा क्योंकि आप उसके राजनैतिक संसाधन भी हैं। शिक्षा के मामले में सब कुछ ठीक नही है। मान लिया कि आपने विश्वविघालयों, आई आई टी, आई आई एम और मेडीकल कॉलेजों में आरक्षण देकर पिछडे वर्गो का भला किया और गरीबों को आगे बढने का मौका दिया लेकिन सही यह भी है कि जब तक बच्चे पहले दर्जे से इंटर तक की पढाई नही करेगें तब तक वे इस राजकीय परोपकार का लाभ उठाने की स्थिति में नही होगें। यह मुर्गी पहले या अंडा वाला सवाल है। इंटर तक वे ही बच्चे पहुंच पाएगें जिन के परिवार गरीबी की तथाकथित रेखा से नीचे नही है और जो रोटी की बजाय किताब और कॉपियां खरीदने की हिम्मत रखते हैं। देश में सर्व शिक्षा अभियान भी है और उसके अरबों रुपए से चलने वाले जन शिक्षण संस्थान भी। इस संस्थानों में इतना पैसा है कि जैसे पेट्रोल पम्प के लिए अर्जियां और राजनैतिक सिफारिशें लगती हैं, वैसे ही इन संस्थानों के लिए दांव पेच किए जाते हैं। यह तो कोई नही मानेगा कि हमारे देश में परोपकारियों की बाढ आ गई है। लोग आवंटित पैसे में से कारें खरीदते हैं, बेटियों के ब्याह करते हैं और आम तौर पर फर्जी ऑडिट करवा के भेज देते हैं। फाइलों में देश साक्षर होता रहता है। जिस देश में उदार सरकारी और संदिग्ध अनुमानों के हिसाब से भी चालीस फीसदी आबादी वही बाइस सौ कैलोरी वाली गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहती है। वहां इस प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य किए बगैर किसी भी आरक्षण या प्रशिक्षण या संवैधानिक अनुरक्षण का कोई मतलब अपनी तो समझ में नही आता। अपनी समझ में यह भी नही आता कि जिस देश में बेटियों को अभिशाप माना जाता है वहां संसद में महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण दे कर, कौन सा तीर मार लिया जाएगा।

शिक्षा देना किसी भी प्रतिष्ठान के लिए परोपकार का नही, अनिवार्यता का विषय है। जब तक देश का हर बच्चा शिक्षित नही हो जाता तब तक देश की पूंजी की हर पाई साक्षरता में लगनी चाहिए। चंद्रमा पर उपग्रह भेजने से हमारी पग़डी में कोई चंद्रमा नही जुड़ जाने वाला है। देश में कितने बच्चे हैं जो अंतरिक्ष में शोध करने के लिए लाखों रुपए खर्च कर के बडे संस्थानों में पहुंच पाते हैं? देश की स्वायत्तता और संप्रभुता तब तक अधूरी और निरर्थक है जब तक हम अक्षरों को हर आगंन तक नही पहुंचा पाते। अनिवार्य शिक्षा को संविधान से जोड़ने से रोकने का संसदीय षडयंत्र सबकी समझ में आ रहा है लेकिन सब खामोश हैं। दिनकर की पक्तियां याद आती है – जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध। (शब्दार्थ)